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मधुपर्क तला मामाचार राजा को मधुपर्क देना चाहिए। गृह्यपरिशिष्ट के अनुसार मधुपर्क का कृत्य पानेवाले की शाखा के अनुसार किया जाना चाहिए, न कि देनेवाले की शाखा के अनुसार।
___ मधुपर्क की विधि आश्वलायनगृह्यसूत्र (१।२४।५-२६) में निम्न प्रकार के वर्णित है-"वह मधु को वही में मिलाता है। यदि मधु न हो तो घृत से काम लिया जाता है। विष्टर (२५ कुशों का आसन-विशेष), पैर धोने के लिए जल, अर्घ-जल (गन्ध, पुष्प आदि से सुगंधित जल), आचमन-जल, मधु-मिश्रण (मधुपर्क), एक गाय-इनमें से प्रत्येक का उच्चारण (अतिथि या सम्मानार्ह व्यक्ति के आ जाने पर) तीन बार किया जाता है।सम्मानार्ह व्यक्ति को उत्तर की ओर मुड़े हुए कुशों के बने विष्टर पर बैठना चाहिए और यह कहना चाहिए-"मैं अपने सम्बन्धिवों में उसी प्रकार सर्वोच्च हूँ जैसा कि प्रकाशकों में सूर्य, और मैं यहां उन सभी को जो मुझसे विद्वेष रखते हैं, कुचल रहा हूँ", या उसे विष्टर पर बैठने के उपरान्त इस मन्त्र का उच्चारण बार-बार करना चाहिए। तब उसे अपना पैर आतिथ्यकर्ता से घुलवाना चाहिए, सबसे पहले ब्राह्मण का दायां पैर तथा तदितर का बायाँ पैर धोया जाना चाहिए। इसके उपरान्त वह अपने जडे हए हाथों में अर्ध-जल लेता है और तब आचमन-जल से आचमन करता है और कहता है-"तू अमृत का बिछौना या प्रथम स्तर है।" जब मधुपर्क लाया जाय तो वह उसे देखे और इस मन्त्र का पाठ करे-"मैं तुम्हें मित्र (देवता) की आँखों से देख रहा हूँ।"तब वह मधुपर्क निम्न सूक्त के साथ ग्रहण करता है-"सविता की प्रेरणा से अश्विनी के बाहुओं एवं पूषा के हाथों से इसे ग्रहण कर रहा हूँ" (वाजसनेयी संहिता ११२४) । वह मधुपर्क को तीन ऋचाओं १।९०१६८) के साथ (उन्हें पढ़कर) देखता है । वह उसे बायें हाथ में लेता है, बायीं ओर से दाहिनी ओर अँगूठे एवं अनामिका अंगुली से तीन बार हिलाता है, अंगुलियों को पूर्व की ओर धोता है और पढ़ता है-"तुम्हें वसु लोग गायत्री छन्द के साथ खायें", "तुम्हें रुद्र त्रिष्टुप् छन्द के साथ खायें," "तुम्हें आदित्य गण जगती छन्द के साथ खायें," "तुम्हें विश्वे देव अनुष्टुप् छन्द के साथ खायें", "तुम्हें भूत (जीव) लोग खायें।" प्रत्येक बार वह बीच से मधुपर्क उठाकर फेंकता है और प्रति बार नयी दिशा में फेंकता है, यथा वसुओं के लिए पूर्व में, रुद्रों के लिए दक्षिण की ओर, आदित्यों के लिए पश्चिम की ओर तथा विश्वेदेवों के लिए उत्तर की ओर। वह उसे खाते समय पहली बार "तुम विराज के दूध हो," दूसरी बार "मैं विराज का दूध पा सकू" तथा तीसरी बार "मुझमें पाद्या विराज का दूध रहे" कहता है। उसे पूरा मधुपर्क नहीं खा जाना चाहिए और न सन्तोष भर खाना चाहिए। उस शेषांश किसी ब्राह्मण को उत्तर दिशा में दे देना चाहिए, यदि कोई ब्राह्मण न हो तो शेषांश जल में छोड़ देना चाहिए, या पूरा खा जाना चाहिए। इसके उपरान्त वह आचमन-जल से आचमन करता है और यह पढ़ता है-"तुम अमृत के अपिधान (ढक्कन) हो" (आपस्तम्बीय मन्त्रपाठ २॥१०॥ ४, एवं आपस्तम्बगृह्यसूत्र १३।१३)। वह दूसरी बार “हे सत्य ! यश! भाग्य ! भाग्य मुझमें बसे" इसे पढ़ता है। आचमन के उपरान्त उसे गाय देने की घोषणा की जाती है। "मेरा पाप नष्ट हो गया है" ऐसा कहकर वह कहता है--"रुद्रों की माता, वसुओं की पुत्री....(ऋ० ८।१०१।१५) इसे जाने दो, मधुपर्क बिना मांस का ही हो।"
कुछ गृह्यसूत्रों (यथा मानव) ने मधुपर्क को विवाहकृत्य का एक अंग माना है, किन्तु कुछ ने (यथा आश्वलायन ने) इसे स्वतन्त्र रूप में गिना है। हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र (१२१२-१३) ने इसे समावर्तन का अंग माना है। मधुपर्क में
४. ऋग्वेव की तीनों ऋचाएं (११९०१६-८) 'मधु' शन से आरम्भ होती हैं, "मधु वाता तायते मधु क्षरन्ति सिधयः" (६), "मधु नक्तमुतोषसो" (७), "मधुमानों वनस्पतिः" (८), और ये मधुपर्क के लिए बड़ी समीचीन भी हैं। ये ऋचाएं वाजसनेयी संहिता (१३।२७-२९) में भी पायी जाती है और मधुमती कही जाती हैं। इनका प्रयोग पारस्करगृह्यसूत्र (१॥३) एवं मानवगृह्यसूत्र (१३९।१४) में हुआ है।
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