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धर्मशास्त्र का इतिहास समञ्जन (वर एवं वधू को उबटन या सुगन्ध लगाना) देखिए शांखायन० (१११२१५), गोभिल० (२।२।१५), पारस्कर० (११४)। सभी सूत्रों में ऋग्वेद (१०८५।४७) के मन्त्र पाठ की भी चर्चा है।
प्रतिसरबन्ध (बधू के हाथ में कंगन बाँधना)-देखिए शांखायन (१।१२।६-८), कौशिक सूत्र (७६१८)। वधूवर-निष्क्रमण (घर के अन्तःकक्ष से वर एवं वधू का मण्डप में आना)-देखिए पारस्कर० (१४)।
परस्पर समीक्षण (एक-दूसरे की ओर देखना) देखिए पारस्कर० (१।४), आपस्तम्ब० (४।४) बौधायन० (१।१।२४-२५)। पारस्कर० (११४) के अनुसार वर ऋग्वेद (१०८५।४४-४०,४१ एवं ३७) की ऋचाएं पढ़ता है। आपस्तम्ब० (४१४) एवं बौधायन के मत से ऋग्वेद का १०३८५।४४ मन्त्र पढ़ा जाना चाहिए। आश्वलायनगृह्यपरिशिष्ट (१२२९) का कहना है कि सर्वप्रथम वर एवं वधू के बीच में एक वस्त्र-खण्ड रखा जाना चाहिए और ज्योतिषघटिका के अनुसार हटा लिया जाना चाहिए, तब वर एवं वधू एक दूसरे को देखते हैं। यह कृत्य आज भी व्यवहार में लाया जाता है। जब बीच में वस्त्र रखा रहता है उस समय ब्राह्मण लोग मंगलाष्टक का पाठ करते हैं।
कन्यावान (घर को कन्या देना)-देखिए पारस्कर० (१।४), मानव० (१।८।६-९), वाराह० १३। आश्वलायनगृह्यपरिशिष्ट का वर्णन आज भी ज्यों-का त्यों चला आ रहा है। संस्कारकौस्तुभ (पृ०७७९) ने कन्यादान के वाक्य को छः प्रकार से कहने की विधि लिखी है। इसी कृत्य में पिता वर से कहता है कि वह धर्म, अर्थ एवं काम में कन्या के प्रति झूठा न हो, और वर उत्तर देता है कि मैं ऐसा ही करूँगा (नातिचरामि)। यह कृत्य आज भी होता है।
__ अग्निस्थापन एवं होम (अग्नि की स्थापना करना एवं अग्नि में आज्य की आहुतियाँ डालना)-यहाँ पर आहुतियों की संख्या एवं मान्त्रों के उच्चारण में मतैक्य नहीं है । देखिए आश्वलायन० ११७।३ एवं ११४१३-७, आपस्तम्ब० ५१ (१६ आहुतियां एव १६ मन्त्र), गोभिल० २।१।२४-२६, मानव० ११८, भारद्वाज १।१३ आदि।
पाणिग्रहण (कन्या का हाथ पकड़ना)।
लाजहोम (कन्या द्वारा अग्नि में धान के लावे (खीलों) की आहुति देना)-देखिए आश्वलायन० (१। ७७-१३), पारस्कर० (१३६), आपस्तम्ब० (५।३-५), शांखायन० (१।१३।१५-१७), गोभिल० (२।२।५), मानव० (१।११।११), बौधायन० (१।४।२५) आदि। आश्वलायन के अनुसार कन्या तीन आहुतियाँ वर द्वारा मन्त्र पढ़ते समय अग्नि में डालती है और चौथी आहुति मौन रूप से ही देती है। कुछ ग्रन्थों ने केवल तीन ही आहुतियों की बात चलायी है।
अग्निपरिणयन- वर वधू को लेकर अग्नि एवं कलश की प्रदक्षिणा करता है। प्रदक्षिणा करते समय वह "अमोहमस्मि" आदि (शांखायन० १।१३।४, हिरण्यकेशि० १०२०८१ आदि) का उच्चारण करता है।
अश्मारोहण (वधू को पत्थर पर चढ़ाना)---लाज-होम, अग्निपरिणयन एवं अश्मारोहण एक-के-बाद-दूसरा तीन बार किये जाते हैं।
सप्तपदी (वर एवं वधू का साथ-साथ सात पग चलना)--यह अग्नि की उत्तर ओर किया जाता है। चावल की सात राशियां रखकर वर वधू को प्रत्येक पर चलाता है। पश्चिम दिशा से पहले दाहिने पैर से चलना आरम्भ होता है।
मूर्धाभिषेक (वर-वधू के सिर पर, कुछ लोगों के मत से केवल वधू के सिर पर ही, जल छिड़कना)-देखिए आश्वलायन० (१७।२०), पारस्कर० (१०८), गोभिल० (२।२।१५-१६) आदि।
भर्योवीक्षण (वधू को सूर्य की ओर देखने को कहना)-पारस्कर० (११८) ने इसकी चर्चा की है और “तच् बक्षुः" आदि (ऋग्वेद ७।६६।१६, वाजसनेयी संहिता ३६।२४) मन्त्र के उच्चारण की बात कही है।
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