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विवाह-विधि
क्रम में आया है, उदाहरणार्थ, आश्वलायनगृह्य सूत्र ( ११७/७) ने अग्नि- प्रदक्षिणा का वर्णन सप्तपदी के पूर्व किया है, किन्तु आपस्तम्बगृह्यसूत्र ने सप्तपदी (४।१६) को अग्निप्रदक्षिणा के पूर्व वर्णित किया है। गोभिलगृह्यसूत्र ( २/२/१६), खादिरगृह्यसूत्र (१/३/३१ ) एवं बौधायनगृह्यसूत्र ( ११४) १०) ने पाणिग्रहण को सप्तपदी के उपरान्त करने को कहा है, किन्तु अन्य सूत्रों ने पहले । आश्वलायन० में बहुत-सी बातें छोड़ दी गयी हैं, यथा- मधुपर्क (जो आपस्तम्ब ३३८, बौधायन ० १ २ ।१ एवं मानव० ११९ में उल्लिखित है) एवं कन्यादान ( जो पारस्करगृह्यसूत्र ११४ एवं मानव० २११८, ६९ में वर्णित है ) । वास्तव में आश्वलायन का मन्तव्य था उन्हीं कृत्यों का वर्णन जो सभी सूत्रों में पाये जाते है। विवाह संस्कार में निम्नलिखित बातें प्रचलित हैं। जितने सूत्र मिल सके हैं उन्हीं के आधार पर निम्न सूची दी जा रही है। जो बहुत महत्वपूर्ण बातें हैं, उनके साथ कुछ टिप्पणियां मी जोड़ी जा रही हैं ।
वधूवर-गुण परीक्षा ( वर एवं वधू के गुणों की परीक्षा ) — इस पर हमने बहुत पहले ही विचार कर लिया है।
aroor (poor के लिए बातचीत करने के लिए लोगों को भेजना ) --- प्राचीन काल में कन्या के पास व्यक्ति भेजे जाते थे (ऋग्वेद १०।८५१८- ९ ) । सूत्रों के काल में भी यही बात थी ( शांखायन ११६१-४, बौघा० १।१।१४-१५, आपस्तम्ब० २।१६, ४११-२ एवं ७ ) । मध्य काल के क्षत्रियों में भी ऐसी प्रथा थी । हर्षचरित में वर्णन है कि मौखरि राजकुमार ग्रहवर्मा ने हर्षवर्धन की बहिन राज्यश्री के साथ विवाह के हेतु दूत भेजे थे। किन्तु आधुनिक काल में ब्राह्मणों तथा बहुत-सी अन्य जातियों में लड़की का पिता कर ढूंढ़ता है, यद्यपि शूद्रों में पाचीन परम्परा अब भी जीवित देखी जाती है।
वाग्दान या वानिश्चय ( विवाह तय करना ) -- इसका उल्लेख शांखायनगृह्यसूत्र (१।६।५-६ ) में पाया जाता है । मध्य काल की संस्काररत्नमाला ने भी इसका वर्णन विस्तार के साथ किया है।
उपनयन,
मण्डपकरण ( विवाह के लिए पण्डाल बनाना ) - पारस्करगृ० ( ११४ ) के मत से विवाह, चौल, . केशान्त एवं सीमन्त घर के बाहर मण्डप में करने चाहिए। देखिए संस्कारप्रकाश, पृ० ८१७- ८१८ । नान्वाद्ध एवं पुण्याहवाचन - इसका वर्णन बौघायनगृ० १११।२४ में पाया जाता है। अधिकांश सूत्र इस विषय में मौन हैं।
वधूगृहगमनवर का बरात के रूप में वधू के घर जाना (शांखायनगृ० १।१२।१) ।
मधुपर्क (वधू के घर में वर का स्वागत ) -- आपस्तम्बगृ० (३१८), बौधायन० (१।२।१), मानवगृ० (१1९ ) एवं काठक गु० (२४|१|३) ने इसका वर्णन किया है। इस पर आगे के अध्याय में लिखा भी जायगा। शांखायन ने दो प्रकार के मधुपकों का ( एक विवाह के पूर्व तथा दूसरा उसके उपरान्त जब कि वर घर लौट आता है) वर्णन किया है । काठकगृ० के टीकाकार आदित्यदर्शन के मत से यह सभी देशों में विवाह के पूर्व किया जाता है। किन्तु कुछ लोगों ने इसे विवाह के उपरान्त देने को कहा है।
स्नापन, परिषापन एवं सत्वहन ( वधू को स्नान कराना, नया वस्त्र देना, उसकी कटि में धागा या कुश की रस्सी बांधना ) -- इस विषय में देखिए आपस्तम्ब० (४।८, काठक० २५१४) । पारस्कर० ( ११४) ने केवल दो आभूषण पहनाने
कहा है, गोम० (२1१।१७-१८) ने स्नान करने एवं वस्त्र धारण करने को कहा है। मानव० ( १।११।४-६) ने परिधान एवं सन्नहन का उल्लेख किया है । गोभिल० (२|१|१०) ने कन्या के सिर पर सुरा (शराब) छिड़कने को कहा है, जिसे टीकाकार ने जल ही माना है ।
२१. कालिदास ने रघुवंश (७) में विवाह सम्बन्धी मुख्य कृत्य लिखे हैं, यथा- मधुपर्क, होम, अग्निप्रदक्षिणा, पाणिग्रहण, लाजाहोम एवं आर्द्रालतारोपण ।
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