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विवाह-विधि
विवाह के धार्मिक कृत्य-विवाह-सम्बन्धी कृत्यों के विवेचन के पूर्व हमें ऋग्वेद (१०१८५) के वर्णन की व्याख्या कर लेनी होगी, क्योंकि ऋग्वेद का यह अंश विवाह के लिए अति महत्वपूर्ण माना जाता रहा है। ऋग्वेद का यह सूक्त सविता की पुत्री सूर्या तथा सोम के विवाह के विषय में है। इस विवाह के विशिष्ट लक्षण ये हैं—दोनों आश्विनी सोम के लिए सूर्या मांगने गये थे (८-९), सविता लड़की देने को तैयार हो गये (९), वर का सम्मान किया गया, उसे भेटें दी गयीं, गायें संहत की गयीं (या दी गयीं), सोम ने सूर्या का पाणिग्रहण किया और यह मन्त्र कहा-“मैं तुम्हारा हाथ प्रेम (सम्मति) के लिए ग्रहण करता हूँ जिससे कि तुम मेरे साथ वृद्धावस्था को प्राप्त होओ; मग, अर्यमा. सविता तथा विज्ञ पूषा देवों ने तुम्हें मुझे दिया कि तुम गृहिणी बनो (गृहिणी का कार्य करने के लिए)।" कन्या अपने पिता का देवों एवं अग्नि के समक्ष दान है (४०-४१); कन्या अपने पिता के अधिकार एवं नियन्त्रण से हटकर अपने पति से मिल जाती है (२४); कन्या (वधू) को इस प्रकार आशीर्वचन दिये जाये हैं- "तुम यहाँ साथ रहो, तुम पृथक् न होने पाओ, तुम दीर्घ जीवन वाली हो, अपने घर में पुत्रों एवं पौत्रों के साथ खेलती प्रसन्न रहो; हे इन्द्र, इसे योग्य पुत्र एवं सम्पत्ति दो, इसे दस पुत्र दो और इसके पति को ग्यारहवाँ पुरुष (घर का सदस्य) बनाओ; तुम अपने श्वशुर, सास, देवर एवं ननद पर रानी बनो (४२, ४५-४६)।" यह बात भी विचारणीय है कि सूर्या के साथ रम्या मी उसकी अनुदेयी होकर गयी, जिससे पति के घर प्रथम बार जाने पर सूर्या को बहुत भार न पड़े। आधुनिक काल में वधू के साथ कोई-न-कोई नारी "पाथराखिन" के रूप में जाती है।
विवाह-सम्बन्धी कृत्यों के विषय में बहुत प्राचीन काल से ही अत्यधिक मत-मतान्तर रहे हैं। स्वयं आश्वलायन गृह्यसूत्र (११७।१-२) का कहना है-"विभिन्न देशों एवं ग्रामों में विभिन्न आचार हैं, उन्हीं का अनुसरण करना चाहिए; उनमें जो सब स्थानों में पाये जाते हैं, हम उन्हीं का वर्णन करेंगे।" आपस्तम्बगृह्यसूत्र (२०१५) के मत से लोगों को स्त्रियों एवं अन्य लोगों से विवाह-विधि जाननी चाहिए (अर्थात् परम्परा से जो विधि चली आयी है)। टीकाकार सुदर्शनाचार्य का कहना है कि कुछ कृत्य, यथा गृह-पूजन, अंकुरारोपण, प्रतिसर (कंगन) का बांधना सब स्थानों में पाया जाता है, क्योंकि उनके साथ वैदिक मन्त्र कहे जाते हैं, किन्तु नागबलि, यक्षबलि एवं इन्द्राणी की पूजा बिना वेद-मन्त्र के होती है। इसी प्रकार काठकगृह्य में भी वर्णन है। आश्वलायनगृह्यसूत्र में विवाह-विधि थोड़े में वर्णित है और यह गृह्यसूत्र अत्यन्त प्राचीन भी है, अतः हम नीचे इसी की वर्णित बातें उपस्थित करेंगे। कहीं-कहीं हम अन्य सूत्रकारों के भी वचन देंगे। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि ऋग्वेद के काल से अब तक बहुत-सी बातें ज्यों की त्यों चली आयी हैं।
आश्वलायनगृह्यसूत्र (१७१३-२१८) में कहा गया है-"अग्नि के पश्चिम चक्की (आटा पीसने वाली) तथा उत्तर-पूर्व पानी का घड़ा रखकर वर को होम करना चाहिए (सुव से), तब तक कन्या उसे (वर के दाहिने हाथ को) पकड़े रहती है। अपना मुख पश्चिम करके खड़े होकर, जब कि कन्या पूर्व मुख किये बैठी रहती है, उसे कन्या के अंगूठे को पकड़कर यह मन्त्र पढ़ना चाहिए-"मैं तुम्हारा हाथ सुख के लिए पकड़ रहा हूँ" (ऋग्वेद १०३८५।३६), ऐसा वह केवल पुत्रों की उत्पत्ति के लिए कहेगा; यदि वह पुत्रियां चाहे तो अन्य बेंगुलियां भी पकड़ेगा। यदि वह पुत्र पुत्रियाँ (दोनों प्रकार की सन्तान) चाहे तो वह हाथ के बाल वाले भाग की ओर से अंगूठा पकड़ेगा। कन्या के साथ वर अग्नि एवं कलश की दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा करेगा और कहेगा-"मैं अम (यह) हूँ, तुम सा (स्त्री); तुम सा हो और मैं अम हूँ; मैं स्वर्ग हूँ,तुम पृथिवी हो; मैं साम हूँ, तुम ऋक् हो। हम दोनों विवाह कर लें.। हम सन्तान उत्पन्न करें। एक-दूसरे को प्यारे, चमकीले, एक-दूसरे की ओर झुके हुए हम लोग सौ वर्ष तक जीयें।" जब वह उसे अग्नि की प्रदक्षिणा कराता है तब प्रस्तर पर पैर रखवाता है और कहता है-"इस पर चढ़ो, इसी के समान अचल होओ, शत्रुओं पर विजय प्राप्त करो, उन्हें कुचल दो।" पहले कन्या की अंजलि में घृत छोड़कर उसका भाई या जो कोई माई के स्थान में हो, दो बार भुना हुआ अन्न (लाजा या धान का लावा) छोड़ता है, जिसका गोत्र जमदग्नि हो (अर्थात् यदि वर का
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