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विवाह के प्रकार -
२९९ स्मृतियों ने विविध वर्गों के लिए इन आठ प्रकारों की उपयुक्तता के विषय में कतिपय मत प्रकाशित किये हैं। सभी ने प्रथम चार अर्थात् ब्राह्म, दैव, आर्ष एवं प्राजापत्य को स्वीकृत किया है (प्रशस्त एवं धर्म्य)। देखिए इस विषय में गौतम (४।१२), आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।५।१२।३), मनु (३।२४), नारद (स्त्रीपुंस, ४४) आदि। सभी ने ब्राह्म को सर्वश्रेष्ठ तथा क्रम से बाद वाले को उत्तमतर बताया है (आपस्तम्बधर्मसूत्र २।५।१२।२, बौधायनधर्मसूत्र १।११।१)। सभी ने पैशाच को निकृष्टतम कहा है। एक मत से प्रथम चार ब्राह्मणों के लिए उपयुक्त हैं (बौधायनधर्मसूत्र १।११।१० एवं मनु ३।१४) । दूसरे मत से प्रथम छ: (आठ में राक्षस एवं पैशाच को छोड़कर) ब्राह्मणों के लिए, अन्तिम चार क्षत्रियों के लिए, गांधर्व, आसुर, पैशाच वैश्यों एवं शूद्रों के लिए हैं (मनु ३।२३) । तीसरे मत से प्राजापत्य, गान्धर्व एवं आसुर सभी वर्गों के लिए तथा पैशाच एवं आसुर किसी वर्ण के लिए नहीं हैं; किन्तु मनु (३।२४) ने आगे चलकर आसुर को वैश्यों एवं शूद्रों के लिए मान्य ठहराया है। मनु ने एक मत प्रकाशित किया है कि गांधर्व एवं राक्षस क्षत्रियों के लिए उपयुक्त (धर्म्य) हैं; दोनों का मिश्रण (यथा--जहाँ कन्या वर मे प्रेम करे, किन्तु उसे मातापिता या अभिभावक न चाहें तथा अवरोध उपस्थित करें और प्रेमी लड़ाई लड़कर उठा ले जाय) भी क्षत्रियों के लिए ठीक है (मनु ३।२६ एवं बौधायनधर्मसूत्र ११११११३)! बौधायनधर्मसूत्र (१।११।१४-१६) ने वैश्यों एवं शूद्रों के लिए आसुर एवं पैशाच की व्यवस्था की है और बहुत ही मनोहर कारण दिया है; "क्योंकि वैश्य एवं शूद्र अपनी स्त्रियों को नियन्त्रण में नहीं रख पाते और स्वयं खेती-बारी एवं सेवा के कार्य में लगे रहते हैं।" नारद (स्त्रीपुंस, ४०) के कथन के अनुसार गान्धर्व सभी वर्गों में पाया जाता है। कामसूत्र (३।५।२८) आराम में ब्राह्म को सर्वश्रेष्ठ मानता है, किन्तु अन्त में उसने अपगे विषय के प्रति सत्य होते हुए गान्धर्व को ही सर्वश्रेष्ठ माना है (३।५।२९-३०)।
राजकुलों में गान्धर्व बहुत प्रचलित रहा है। कालिदास ने शाकुन्तल (३) में इसके बहु व्यवहार का उल्लेख किया है। महाभारत (आदिपर्व २२९।२२) में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं जब अर्जुन सूमद्रा के प्रेम में पड़ चुके थे-“शूरवीर क्षत्रियों के लिए अपनी प्रेमिकाओं को उठा ले जाना व्यवस्था के भीतर है।" अमोघवर्ष के सञ्जन-पत्रों (शकाब्द ७९३) में ऐसा आया है कि इन्द्रराज ने चालुक्यराज की कन्या से खेड़ा में राक्षस रीति से विवाह किया (एपिगैफिया इण्डिका, जिल्द १८५० २३५)। पृथ्वीराज चौहान ने जयचन्द्र की कन्या संयोगिता को राक्षस ढंग से ही प्राप्त किया था जो बहुत ही प्रसिद्ध ऐतिहासिक घटना मानी जाती है। किन्तु इस विषय में यह बात विचारणीय है कि कन्नौज के राजा जयचन्द की कन्या की सम्मति थी, अतः यह विवाह गांधर्व एवं राक्षस प्रकारों का मिश्रण कहा जायगा (मनु ३।२६) ।
जैसा कि वीरमित्रोदय टीका से ज्ञात होता है, स्वयंवर को धर्मशास्त्रों ने व्यावहारिक रूप में गान्धर्व के समान ही माना है (याज्ञवल्क्य १६१ की टीका में)। स्वयंवर के कई प्रकार हैं। सबसे सरल प्रकार वह है जिसमें युवावस्था प्राप्त कर लेने पर कन्या तीन वर्ष (वसिष्ठधर्मसूत्र १७१६७-६८, मनु ९।९०, बौधायनधर्मसूत्र ४।१।१३ के अनुसार) या ३ मास (गौतम १८३१०९, विष्णुधर्मसूत्र २५।४०-४१ के अनुसार) जोहकर स्वयं वर का वरण कर सकती है। याज्ञवल्क्य (२०६४) के मत से पितृहीन तथा अभिभावकहीन कन्या स्वयं योग्य वर का वरण कर सकती है। स्वयंवर करने पर लड़की को अपने सारे गहने उतारकर माता-पिता या माई को दे देने पड़ते थे और उसके पति को कोई शुल्क नहीं देना पड़ता था, क्योंकि समय में विवाह न करने पर माता-पिता या भाई अपने अधिकारों से वंचित हो जाते
२०. गान्धर्वेण विवाहेन विह्वषो राजर्षिकन्यकाः। श्रूयन्ते परिणीतास्ताः पितृभिश्चाभिनन्दिताः ॥ शाकुन्तल ३।
प्रसह हरणं चापि क्षत्रियाणां प्रशस्यते। विवाहहेतुः शूराणामिति धर्मदिवो विदुः॥ आदिपर्व २१ ॥२२॥
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