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धर्मशास्त्र का इतिहास
हो तो उसे अमान्य नहीं ठहराया जा सकता, भले ही पिता के रहते उसका सम्पादन किसी अन्य व्यक्ति द्वारा हुआ हो । किन्तु विवाह के पूर्व अधिकारी व्यक्तियों के रहते किसी अन्य व्यक्ति को कन्यादान करने से रोका जा सकता है। विवाह में कन्या - क्रय के विषय में भी कुछ लिख देना आवश्यक है। मैत्रायणी संहिता ( १।१०।११ ) में आया है कि वह वास्तव में पापी है जो पति द्वारा क्रीत हो जाने पर अन्य पुरुषों के साथ घूमती है । जैमिनि ( ६ | १|१५ ) के मत से १०० गायें एवं रथ देकर कन्या का विवाह करना कन्या का क्रय नहीं कहा जा सकता, यह तो केवल भेट - मात्र है । जैमिनि के कथन से व्यक्त होता है कि यदि मैत्रायणी संहिता के समय कन्या - क्रय की प्रथा थी तो वह भर्त्सना के योग्य थी । स्पष्ट है, सूत्रकारों के काल में कन्या - क्रय की भर्त्सना पूर्णरूप से होती थी। इस विषय में आपस्तम्बधर्मसूत्र ( २ | ६।१३।१०-११) का कथन अवलोकनीय है- "बच्चों को भेट में अथवा क्रय में नहीं दिया जा सकता; विवाह में वेद द्वारा आज्ञापित जो मेट कन्या के पिता को दी जाती है (यथा 'अत: १०० गायें एवं एक रथ कन्या के पिता को दिये जाने चाहिए, और वह भेट विवाहित जोड़े की है), वह कन्या के पिता की एक अभिलाषा मात्र है, उसकी कन्या को तथा उसके बच्चों को एक अच्छी आर्थिक स्थिति प्राप्त हो जाय; यह रीति इसकी द्योतक है, न कि कन्या के क्रय या विक्रय की सूचक है । 'विक्रय' शब्द का प्रयोग केवल आलंकारिक है, क्योंकि पति-पत्नी का सम्बन्ध विक्रय से नहीं उत्पन्न होता प्रत्युत धर्म से । "
ऋग्वेद (१।१०९।२), मैत्रायणी संहिता ( १।१०।१), निरुक्त ( ६।९, ३०४), ऋग्वेद ( ३|३१|१ ), ऐतरेय ब्राह्मण (३३), तैत्तिरीय संहिता ( ५/२/१३ ), तैत्तिरीय ब्राह्मण ( १।७।१०) आदि के अवलोकन से विदित होता है। कि प्राचीन काल में विवाह के लिए लड़कियों का क्रय-विक्रय होता था । यह प्रथा अन्य देशों में भी थी । किन्तु यह धारणा क्रमशः समाप्त हो गयी और वर पक्ष से कुछ लेना पापमय समझा जाने लगा। बौधायनधर्मसूत्र ( १।११।२०२१) ने दो उद्धरण दिये हैं, "जो स्त्री धन देकर लायी जाती है, वह वैध पत्नी नहीं है, वह पति के साथ देव-पूजन, श्राद्ध आदि में भाग नहीं ले सकती; कश्यप ऋषि ने उसे दासी कहा है । जो लोभ के वश हो अपनी कन्याओं का विवाह शुल्क लेकर करते हैं, वे पापी हैं, अपने आत्मा को बेचने वाले हैं, महान् पातक करने वाले हैं और नरक में जाते हैं, आदि ।” बौधायन ने पुनः लिखा है- " जो अपनी कन्या को बेचता है, अपना पुण्य बेचता है।" मनु ( ३।५१, ५४-५५ ) ने लिखा है—“पिता को अपनी कन्या के बल पर कुछ भी ग्रहण नहीं करना चाहिए, यदि वह कुछ लेता है तो कन्या को बेचने वाला कहा जायगा, यदि कन्या के सम्बन्धी लोग वर पक्ष द्वारा दिये गये पदार्थ कन्या को दे देते हैं, तो यह कन्याविक्रय नहीं कहा जायगा । इस प्रकार का धन लेना ( अर्थात् वरपक्ष से लेकर कन्या को दे देना) कन्या को आदर देना है। पिताओं, भाइयों, पतियों एवं बहनोइयों को चाहिए कि वे अपने कल्याण के लिए लड़कियों को आभूषण आदि देकर उन्हें सम्मानित करें ।” देखिए मनु ( ९/९८ ) । मनु ( ९ | ६१ ) एवं याज्ञवल्क्य ( ३।२३६) ने कन्या -विक्रय को उपपातक कहा है। महाभारत (अनुशासनपर्व ९३ । १३३ एवं ९४ १३ ) ने कन्या - विक्रय की भर्त्सना की है। अनुशासनपर्व (४५० १८-१९) में आया है (यम की गाथाओं के विषय में) कि जो "अपने पुत्र को वेचता है, या जीविका के लिए कन्या- विक्रय करता है वह भयानक नरक अर्थात् कालसूत्र में गिरता है। अपरिचित व्यक्ति को भी नहीं बेचना चाहिए, अपने बच्चों की तो बात ही निराली है।" (अनुशासनपर्व ४५ | २३ ) । अनुशासनपर्व ( ४५।२० ) एवं मनु ( ३।५३ ) ने आर्ष विवाह की भर्त्सना की है, क्योंकि उसमें वर के पिता से युग्म पशु लेने की बात है। केरल या मलावार में ऐसा विश्वास है कि महान् गुरु शंकराचार्य ने ६४ आचारों में कन्याविक्रय प्रतिबन्ध, सती- प्रतिबन्ध आदि को भी रखा है ( देखिए इण्डियन एण्टिक्वेरी, जिल्द ४, पृ० २५५-२५६, और अत्रि ३८९ एवं आपस्तम्ब (पद्य), ९।२५ ) । अर्काट जिले के उत्तरी भाग के पदैवीडु अभिलेख (१४२५ ई०) से पता चलता है कि कर्णाट, तमिल, तेलुगु एवं लाट (दक्षिण गुजरात ) के ब्राह्मण प्रतिनिधियों ने एक संमतिपत्र पर हस्ताक्षर किये कि वे कन्मा के विवाह में वर-क्ष से सोना आदि नहीं
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