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कन्या-विजय और अभिभावकत्व
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के विषय में है। संस्कारप्रकाश द्वारा उद्धृत कात्यायन के मत से यदि सगोत्र कन्या से विवाह हो जाय तो वह कन्या पुन: किसी अन्य से विवाहित की जा सकती है। किन्तु संस्कारप्रकाश कात्यायन के इस मत को आधुनिक काल में वैध नहीं मानता और बेचारी कन्या, जिसका कोई दोष नहीं है, उसके मत से जीवन भर कुमारी रूप में न तो विवाहित और न विषवा समझी जायगी ।
सगोत्र सम्बन्ध एक ओर विवाह के लिए सपिण्ड सम्बन्ध से विस्तततर है तो दूसरी ओर संकीर्णतर है। एक व्यक्ति सगोत्र कन्या से विवाह नहीं कर सकता, चाहे वह कितनी ही दूरी की सगोत्र क्यों न हो। उसी प्रकार एक दत्तक पुत्र सगोत्र की (अपने जनक के कुल की) कन्या से दो कारणों से विवाह नहीं कर सकता; (१) गोद चले जाने पर पिता के घर में वसीयत, पिण्डदान आदि पर अधिकार नहीं रख सकता किन्तु पिता के कुल से अन्य सम्बन्ध ज्यों-के-त्यों रहते हैं, (२) मनु (३1५ ) के कथनानुसार कन्या सगोत्र ( वर के पिता के गोत्र की) नहीं होनी चाहिए, अतः गोद चले जाने पर भी वास्तविक पिता का गोत्र देखा जाता है। सपिण्ड - विवाह में प्रतिबन्ध केवल सात या पाँच पीढ़ियों तक माना जाता है, किन्तु सगोत्र पर प्रतिबन्ध अनगिनत पीढ़ियों तक चला जाता है । सपिण्ड एक ही गोत्र ( सगोत्र ) का या विभिन्न गोत्र का संभव है, कुछ सीमा तक सपिण्ड में सगोत्र एवं विभिन्न गोत्र आ जाते हैं । भिन्न गोत्र वाले बन्धु कहलाते हैं (मिताक्षरा ), वे सभी सजाति हैं और दाय में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं।'
विवाह सम्बन्धी अन्य प्रतिबन्ध भी हैं। स्मृतिमुक्ताफल ने हारीत को उद्धृत करके बताया है कि अपनी कन्या देकर दूसरे की कन्या अपने पुत्र के लिए लेना, एक ही व्यक्ति की दो कन्या देना ( उसी समय ) और अपनी दो कन्याएँ दो भाइयों को एक साथ ही देना वर्जित है । किन्तु आज ये नियम केवल नियम मात्र रह गये हैं । आधुनिक भारत में मृत पत्नी की बहिन से विवाह करना वर्जित नहीं माना जाता ।
कन्या का विवाह कौन तय करता है और कौन उसका दान करता है ? विष्णुधर्मसूत्र के मत से क्रम से पिता, पितामह, माई, कुटुम्बी, नाना, नानी कन्या को विवाह में दे सकते हैं (२४१३८-३९ ) । याज्ञवल्क्य ( १/६३-६४ ) ने थोड़ा अन्तर किया है। उन्होंने नाना को छोड़ दिया है और कहा है कि जब अभिभावक पागल हो या किसी दोष से पराभूत हो तो कन्या को स्वयंवर करना चाहिए अर्थात् अपने से अपना पति चुनना चाहिए। नारद ने निम्न प्रकार का अनुक्रम रखा है; पिता, भाई ( पिता की राय से ) पितामह, मामा, सकुल्य, बान्धव, माता ( यदि तन-मन से स्वस्थ हो ), तब दूर के सम्बन्धी, इसके उपरान्त राजाज्ञा से स्वयंवर ( स्त्रीपुंस, २० - २३ ) । कन्यादान करना केवल अधिकार मात्र नहीं था, प्रत्युत एक उत्तरदायित्व था ( याज्ञवल्क्य ११६४ ) ; यदि समय से कन्यादान न किया जा सके तो भ्रूणहत्या का पाप लगता है। स्वयंवर का प्रचलन रामायण एवं महाभारत से ज्ञात होता है, किन्तु वह केवल राजकीय कुलों तक ही सीमित था । मनु (९/९०-९१ ) के मत से विवाह योग्य हो जाने के तीन वर्ष तक बाट जोहकर स्वयंवर किया • जाना चाहिए। विष्णुधर्मसूत्र ( २४१४० ) के अनुसार युवावस्था प्राप्त कर लेने पर तीन बार मासिक धर्म हो लेने के . उपरान्त कन्या को अपना विवाह कर लेने का पूर्ण अधिकार है।
स्मृतियों में पुरुष के विवाह के विषय में व्यवस्था देनेवाले की चर्चा नहीं हुई है, क्योंकि कम अवस्था वाले लड़के के विवाह का प्रश्न ही नहीं था ।
कन्यादान के सिलसिले में माता को उतना उच्च स्थान नहीं प्राप्त है, क्योंकि वह स्वयं आश्रितावस्था में रहती थी और उसे यह कार्य किसी पुरुष सम्बन्धी से कराना पड़ता था । आधुनिक भारत में माता कन्या के लिए वर चुनने की अधिकारिणी है, किन्तु कन्यादान किसी पुरुष द्वारा ही किया जा सकता है। धर्मसिन्धु के मत से यदि कन्या स्वयंवर करे, या माता कन्यादान करे तो कन्या या माता को नान्दीश्राद्ध एवं मुख्य संकल्प करना चाहिए, किन्तु अन्य कृत्य किसी ब्राह्मण द्वारा किया जाना चाहिए। वास्तव में मुख्य बात विवाहकर्म है, यदि विवाह सप्तपदी के द्वारा सम्पादित हो चुका
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