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धर्मशास्त्र का इतिहास
कालान्तर में गोत्र से कुल का परिचय भी दिया जाने लगा, ऐसी बात अभिलेखों में प्राप्त होती है । कदम्ब कुल के राजा कृष्णवर्मा के ताम्रलेख में एक सेठ ( श्रेष्ठी) अपने को तुठियल्ल गोत्र एवं प्रवर का कहता है। राजमहेन्द्री के रेड्डी राजा (शूद्र) अल्लय वेमा अपने को पोल्वोला गोत्र का कहते हैं (देखिए एपिफिया इण्डिका, जिल्द १३, पृ० २३७ ) ।
एक बड़ी विचित्र बात यह है कि सूत्रकारों ने प्रवरों के ऋषियों के नामों में बड़े-बड़े मतभेद खड़े कर दिये हैं। हम एक उदाहरण लें, यथा 'शाण्डिल्य गोत्र' । आश्वलायन ने दो ऋषि-दल दिये हैं; "शाण्डिल - असित - दैवल " या “काश्यप—असित—दैवल", किन्तु आपस्तम्ब के अनुसार प्रवर में केवल दो ऋषि हैं, यथा “दैवल – असित", किन्तु कुछ अन्य लोगों के मत से तीन ऋषि हैं, यथा “ काश्यप - देवल असित", किन्तु बौधायन ने चार दल प्रस्तुत किये हैं, यथा "काश्यप — अवत्सार — दैवल इति", "काश्यप - अवत्सार - असित इति", "शाण्डिल—असित-दैवल इति", "काश्यप - अवत्सार - शाण्डिल इति ।" इन विभिन्न मतों के लिए हम क्या उत्तर दें सकते हैं ? बौधायन ( प्रवरध्याय ४४) का कथन है कि लोगाक्षि ( लोकाक्षि ) लोग दिन में वसिष्ठ हैं, किन्तु रात्रि में काश्यप और उनके प्रवर में भी यह द्विधा सम्बन्ध है । स्मृत्यर्थसार के अनुसार इसका कारण है प्रयाज, जिसमें दिन में वसिष्ठों की विधि के अनुरूप क्रिया की जाती है और रात्रि में काश्यपों की विधि के अनुसार ।
गोत्रों में कुछ नाम गाथाओं में विश्रुत राजाओं एवं क्षत्रियों के हैं, यथा वीतहव्य एवं वैन्य तथा प्रवरों में कुछ कल्पनात्मक राजाओं के, यथा मान्धाता, अम्बरीष, युवनाश्व, दिवोदास । वीतहव्य का नाम तो मृगु से सम्बन्धित ऋग्वेद ( ६ । १५/२ - ३ ) में भी मिलता है।
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हारीत का प्रवर या तो "आंगिरस -अम्बरीष-यौवनाश्व" है या "मान्घाता-अम्बरीष-यौवनाश्व" है । बहुत-से काल्पनिक राजर्षि भी पाये जाते हैं । भृगुओं में एक उपशाखा वैन्य है जो पुनः पार्थो एवं बाष्कलों में विभाजित है । पृथु की कथा, जिन्होंने पृथ्वी को दुहा, प्रसिद्ध है (द्रोण-पर्व ६९), वे अधिराज कहे गये हैं (अनुशासनपर्व १६६।५५ ) । वायुपुराण में कई स्थानों में ऐसा आया है कि कुछ क्षत्रियों ने ब्राह्मणों के प्रवर अपना लिये, ऐसा क्यों हुआ, इसका उत्तर आज सरल नहीं है। हम कल्पनात्मक ढंग से कह सकते हैं कि पुराणों में प्राचीन परम्पराएं संगृहीत हैं, जिनके अनुसार प्राचीन काल में वर्णों में कोई विशिष्ट रेखा - विभाजन नहीं था और प्राचीन राजा भी वैदिक विद्या में पारंगत होते थे, अपने घर में श्रौत अग्नि प्रज्वलित रखते थे, वे कालान्तर में ऋषिवत् हो गये और उनके नामों के साथ अग्नि का आवाहन किया जाने लगा तथा ब्राह्मण लोग भी इन्हें देवताओं के यजन में प्रार्थना के साथ बुलाने लगे ।
गोत्र एवं प्रवर में जो सम्बन्ध है, उसके विषय में यों कहा जा सकता है - गोत्र प्राचीनतम पूर्वज है या किसी व्यक्ति के प्राचीनतम पूर्वजों में एक है, जिसके नाम से युगों से कुल विख्यात रहा है, किन्तु प्रवर उस ऋषि या उन ऋषयों से बनता है जो अति प्राचीनतम रहे हैं, अत्यन्त यशस्वी हैं और जो गोत्र ऋषि के पूर्वज या कुछ दशाओं में अत्यन्त प्रख्यात ऋषि रहे हैं ।
हमने देख लिया है कि सगोत्र एवं सवर विवाह विवाह नहीं गिना जाता और ऐसी विवाहित कन्या पत्नी नहीं हो सकती । इस प्रकार के विवाह का प्रतिफल क्या होता था ? बौधायन ( प्रवराध्याय, ५४ ) के मत से सगोत्र कन्या से संभोग करने पर चान्द्रायण व्रत किया जाना चाहिए और उसके उपरान्त उस नारी को माता या बहिन के समान रखना चाहिए। यदि कोई पुत्र उत्पन्न हो जाय तो पाप नहीं लगता और उसको कश्यप गोत्र दे देना चाहिए। इस विषय में देखिए अपर्क ( पृ० ८० ) । यदि जान-बूझकर सगोत्र या सप्रवर से कोई विवाह कर ले तो वह जातिच्युत हो जाता है और उससे उत्पन्न पुत्र चाण्डाल कहलाता है ( आपस्तम्ब, संस्कारप्रकाश द्वारा उद्धृत, पृ० ६८० ) । उपर्युक्त Satara - नियम, जिसके अनुसार बच्चा कश्यप गोत्र का कहलाएगा, केवल अनजाने में सगोत्र कन्या से विवाह कर लेने
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