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गोत्र और प्रवर
२८५ हैं जिनसे पता चलता है कि पुरोहितों के कुलों के कई दल थे, जो अपने संस्थापकों (वास्तविक या काल्पनिक) के नाम से विख्यात थे और आपस में पूजा-अर्चा की विधियों में भिन्न थे । तैत्तिरीय ब्राह्मण (११११४ ) में आया है कि प्रूत After after आधा ( प्रतिष्ठापन) मृगुओं या अंगिरसों के लिए "मृगूणां (अंगिरसाम्) त्वा देवानां व्रतपते व्रतेनादधामि " नामक मन्त्र से होना चाहिए, किन्तु अन्य ब्राह्मणों के लिए "आदित्यानां त्वा देवानां व्रतपते" के साथ । तैत्ति
में
संहिता ( २/२/३ ) में "आंगिरसी प्रजा" (अंगिरस्-दल के लोग ) का प्रयोग हुआ है। ताण्ड्यब्राह्मण ( १८/२/१२) का मत है कि उदुम्बर का चमस सगोत्र ब्राह्मण को दक्षिणा स्वरूप देना चाहिए। कौषीतकि ब्राह्मण (२५।१५) में आया है कि विश्वजित यज्ञ ( जिसमें अपना सर्वस्व दान कर दिया जाता है) करने के उपरान्त व्यक्ति को अपने गोत्र के • ब्राह्मण के यहाँ वर्ष भर रहना चाहिए। ऐतरेय ब्राह्मण (३०1७) में एक गाथा है जो ऐतश एवं उसके पुत्र अभ्यग्नि के बारे में है । वहाँ ऐसा लिखा है कि ऐतशायन अभ्यग्नि लोग औवों में सबसे बड़े पातकी हैं। कौषीतकि ब्राह्मण भी यही गाथा आयी है और लिखा है कि ऐतशायन लोग भृगुओं में निकृष्ट हो गये, क्योंकि उनके पिता ने ऐसा शाप दिया था । बोधायन श्रौतसूत्र के अनुसार ऐतशायन लोग भृगुगण की उपशाखा थे । विश्वामित्र द्वारा पुत्र रूप में स्वीकृत कर लिये जाने पर शुनःशेप देवरात कहलाये और ऐतरेय ब्राह्मण (३३।५) का कहना है कि कापिलेय एवं ब्राह्म देवरात से सम्बन्धित थे। बौधायन श्रौतसूत्र के अनुसार देवरात एवं बभ्रु विश्वामित्र गोत्र की उपशाखाएं थे। शुनःशेप जन्म से आंगिरस थे (ऐतरेय ब्राह्मण २३।५ ) । इससे स्पष्ट है कि ऐतरेय ब्राह्मण के काल में गोत्र सम्बन्ध जन्म से था न कि "आचार्य से शिष्य" द्वारा सम्बन्धित । उपनिषदों में ऋषि लोग ब्रह्मज्ञान की व्याख्या करते समय अपने शिष्यों को उनके गोत्र- नाम से पुकारते थे, यथा भारद्वाज, गार्ग्य, आश्वलायन, भार्गव एवं कात्यायन गोत्रों से ( प्रश्न ० १ १ ) ; वैयाघ्रपद्य एवं गौतम (छान्दोग्य० ५।१४११ ) ; गौतम एवं भरद्वाज, विश्वामित्र एवं जमदग्नि, वसिष्ठ एवं कश्यप (बृहदारण्यकोपनिषद् २।२।४) । इससे स्पष्ट होता है कि ब्राह्मणों एवं प्राचीन उपनिषदों के कालों में उपशाखाओं के साथ गोत्रों की व्यवस्था प्रचलित थी । किन्तु यहाँ गोत्रों का उल्लेख यज्ञों या शिक्षा के सम्बन्ध में हुआ है। किन्तु विवाह के सम्बन्ध में गोत्र या सगोत्र का संकेत नहीं मिलता है। लाट्यायन श्रौतसूत्र ( ८ २८ एवं १० ) की व्याख्या से पता चलता है कि उसके पूर्व से ही सगोत्र विवाह वर्जित मान लिया गया था । बहुत-से गृह्यसूत्रों एवं धर्मसूत्रों में सगोत्र विवाह वर्जित माना गया है। इससे यह नहीं माना जाना चाहिए कि सगोत्र विवाह का निषेध सूत्र - काल से ही हुआ, प्रत्युत जैसा कि हमने उपर्युक्त विवेचन में देख लिया है, बहुत पहले से, कम-से-कम ब्राह्मण काल से उस पर सुविचारणा आरम्भ हो गयी थी ।
गोत्र की बहुत महत्ता है। प्राचीन आर्यों में इसकी व्यावहारिक महत्ता थी। उसकी कुछ विशिष्ट बातें हम नीचे दे रहे हैं—
( १ ) सगोत्र कन्याओं से विवाह निषिद्ध माना जाता था।
(२) दाय के विषय में मरनेवाले मनुष्य का धन सन्निकट सगोत्र को मिलता था ( गौतम २८ । १९ ) । (३) श्राद्ध में सगोत्र ब्राह्मणों को, जहाँ तक सम्भव हो, नहीं निमन्त्रित करना चाहिए (आपस्तम्बधर्मसूत्र २।७।१७।४, गौतम १५।२० ) ।
(४) पार्वण, स्थालीपाक एवं अन्य पाकयज्ञों में जहाँ अन्य लोग हवि का मध्य भाग या पूर्वा भाग काटते थे, वहाँ जामदग्न्य (जो पञ्चावत्ती हैं) मध्य, पूर्वार्ध एवं पश्चार्ष भाग काटते थे ( आश्वलायनगृह्यसूत्र १।१०।१८-१९ ) । (५) प्रेत के तर्पण में उसके गोत्र एवं नाम को दुहराया जाता था ( आश्वलायनगृह्यसूत्र ४|४|१० ) 1 (६) चौल संस्कार में बालों का गुच्छा (चोटी) अपने गोत्र एवं कुलाचार के अनुसार छोड़ा जाता था ( खादिरगृह्य २|३|३० ) ।
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