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धर्मशास्त्र का इतिहास पराशरमाधवीय (१, भाग २, पृ० ५९) ने स्पष्ट लिखा है कि केवल वही कन्या, जो वर की सपिण्ड नहीं है, विवाह करने योग्य है। अब हम 'सपिण्ड' शब्द की दो व्याख्याओं के विषय में वैदिक साहित्य का हवाला देंगे। मिताक्षरा ने सपिण्ड को “शरीर या शरीरावयव" से तथा दायभाग ने “चावल के पिण्ड" से संयोजित कर रखा है।
पिण्ड' शब्द ऋग्वेद (१।१६२।१९) एवं तैत्तिरीय संहिता (४।६।९।३) में आया है, और लगता है, उसका अर्थ है “अग्नि में आहुति रूप में दिये हुए यज्ञिय पशु के शरीर का एक भाग।" यहाँ 'पिण्ड' शब्द का अर्थ चावल का गोलक (पिण्ड) नहीं है। किन्तु तैत्तिरीय संहिता (२।३।८२) एवं शतपथब्राह्मण (२।४।२।२४) में "पिण्ड' शब्द का अर्थ है चावल का पिण्ड (गोलक) जो पितरों को दिया जाता है। निरुक्त (३।४ एवं ५) ने "पिण्डदानाय" (चावल का पिण्ड देने के लिए) शब्द दो बार प्रयुक्त किया है। किन्तु 'सपिण्ड' शब्द वैदिक साहित्य में किस अर्थ का द्योतक था, हमें इस पर कोई प्रकाश नहीं मिलता। धर्मसूत्रों में 'सपिण्ड' शब्द बहुधा आया है और वे पिण्द-दान करने एवं दाय लेने में गहरा सम्बन्ध व्यक्त करते हैं (देखिए, गौतम १४।१३।२८१२१, आपस्तम्ब० २।६।१४।२, वसिष्ठ ४।१६-१८, विष्णु० १५।४०)।
___हमने बहुत पहले देख लिया है कि कुछ ऋषि सगोत्र कन्या और कुछ सप्रवर कन्या से विवाह करने को मना करते हैं। बहुत-से ऋषियों ने, जिनमें विष्णु, नारद आदि मुख्य हैं, सगोत्र एवं सप्रवर कन्या से विवाह अमान्य ठहराया है (विष्णुधर्मसूत्र २४१९, याज्ञवल्क्य ११५३, नारद-स्त्रीपुंस, ७)। अत: गोत्र एवं प्रवर के विषय में कुछ जान लेना आवश्यक है।
ऋग्वेद (१०५।११३, १११७११, ३,३९।४, ३।४३।७, ९।८६।२३, १०।४८१२, १०११२०१८) में गोत्र का अर्थ है “गौशाला” या “गायों का झुण्ड"। स्वाभाविक रूपक में 'गोत्र' अवरुद्ध जल वाले बादल या वृत्र (बादल राक्षस) या पानी देनेवाले बादलों को छिपा रखने वाला पर्वत-शिखर कहा गया है। और देखिए ऋग्वेद २।२३।३ (जहाँ बृहस्पति का रथ 'गोत्रभिद्' कहा गया है), १०।१०३१५ (तैत्तिरीय संहिता ४।६।४।१, अथर्ववेद ५।२।८, वाजसनेयी संहिता १७।३९), ६।१७।२, १०।१०३।६। यहाँ 'गोत्र' का अर्थ 'दुर्ग' भी है। कहीं-कहीं गोत्र का अर्थ है 'समूह' (ऋग्वेद २।२३।२८, ६१६५।५) । 'समूह' से मनुष्यों का दल' अर्थ निकालना सरल है। एक स्थान पर “एक ही पूर्वज के वंशज" के अर्थ में भी 'गोत्र' शब्द प्रयुक्त हुआ है। अथर्ववेद (५।२१।३) में "विश्वगोत्र्यः" (सभी कुलों से सम्बन्धित) शब्द आया है। यहाँ 'गोत्र' शब्द का सुस्पष्ट अर्थ है "आपस में सम्बन्धित मनुष्यों का एक दल।" कौशिकसूत्र (४।२) में एक मन्त्र आया है जिसमें गोत्र का निश्चयात्मक अर्थ है “मनुष्यों का एक दल।" ।
तैत्तिरीय संहिता के बहुत से वचन व्यक्त करते हैं कि बड़े-बड़े ऋषियों के वंशज उन ऋषियों के नाम से पुकारे जाते थे। तैत्तिरीय संहिता (११८११८) में आया है कि "होता भार्गव (भृगु का वंशज) है।" टीकाकार ने व्याख्या की है कि यह केवल राजसूय में होता है। यह सम्भव है कि उन दिनों वंशानुक्रम गुरु एवं शिष्य तथा पिता एवं पुत्र से माना जाता था। प्राचीन काल में व्यवसाय बहुत कम थे, अतः यह सम्भव है कि उन दिनों पुत्र अपने पिता से ही व्यवसाय सीखता था। तैत्तिरीय संहिता (७।१।९।१) में आया है--"अतः एक साथ ही दरिद्र (या बूढ़े) दो जामदग्निय नहीं मिल पाते।" इससे पता चलता है कि उन दिनों जमदग्नि बहुत प्राचीन ऋषि कहे जाते थे और तब से उनके बहुत-से वंशज हो चुके थे, वे सभी जामदग्न्य (या ग्निय) कहे जाते थे, और उनमें दो वंशज भी लगातार दरिद्र या बूढ़े नहीं पाये गये।
ऋग्वेद के मन्त्रों में प्रसिद्ध ऋषियों के वंशज बहुवचन में कहे गये हैं-"वसिष्ठों ने अपने पिता की भाँति अपने स्वर उच्च किये" (ऋग्वेद १०६६।१४)। ऋग्वेद (६१३५।५) में भरद्वाज आंगिरस कहे गये हैं। आश्वलायन श्रौतसूत्र के अनुसार भरद्वाज वह गोत्र है जो अंगिरागण की श्रेणी में आता है। ब्राह्मण-साहित्य में कई एक ऐसे संकेत
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