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धर्मशान का इतिहास (७) आधुनिक काल में भी सन्ध्या-वन्दन के समय अपने गोत्र, प्रवर, वेदशाखा एवं सूत्र के नाम लिये जाते हैं।
श्रीत यज्ञों के विषय में कुछ उदाहरण अवलोकनीय हैं। जैमिनि का कहना है कि सत्र (यज्ञिय अवधियां जो १२ दिनों या कुछ अधिक दिनों तक चलती हैं) केवल ब्राह्मण ही कर सकते हैं, किन्तु उनमें भी भृगुओं, शौनकों एवं वसिष्ठों को मना है (६।७।२४-२६)। अत्रि, वध्रयश्व, वसिष्ठ, वैश्य (वैन्य?), शौनक, कण्व, कश्यप एवं संकृति गोत्र के लोग नाराशंस को द्वितीय प्रयाज के रूप में ग्रहण करते थे, किन्तु अन्य लोग तनूनपात् को (देखिए, जैमिनि ६।६।१ पर शबर)।
प्रवर की धारणा प्राचीन काल से ही गोत्र के साथ जुड़ी हुई है। दोनों पर प्रकाश साथ ही पड़ना चाहिए। 'प्रवर' का शाब्दिक अर्थ है “वरण करने या आवाहन करने योग्य (प्रार्थनीय)।" अग्नि की प्रार्थना इसलिए की जाती थी कि वह यज्ञ करनेवाले की आहुतियाँ देवों तक ले जाय। इस प्रार्थना के साथ उन ऋषियों (दूर के पूर्वजों) के नाम लिये जाते थे जो प्राचीन काल में अग्नि का आवाहन करते थे। इसी से 'प्रवर' शब्द का संकेत है यज्ञ करनेवाले के एक या अधिक श्रेष्ठ पूर्वज या ऋषियों से। प्रवर का समानार्थक शन्द है आर्षेय या आर्ष (याज्ञवल्क्य ११५२)। गृह्य एवं धर्मसूत्रों के अनुसार हमारे कतिपय घरेलू उत्सवों एवं आचारों में प्रवर का प्रयोग होता है। कुछ उदाहरण निम्न हैं
(१) विवाह में सप्रवर कन्या से विवाह निषिद्ध है।
(२) उपनयन-संस्कार में मेखला में एक, तीन या पाँच गाँठे होती हैं जो कि बच्चे के प्रवर वाले ऋषियों की संख्या की द्योतक हैं (शांखायनगृह्यसूत्र २।२)।
(३) चौल कर्म में बच्चे के सिर पर कितने बाल-गुच्छ (चोटी) रहें, यह बच्चे के कुल के प्रवर के ऋषियों की संख्या पर निर्भर होता है (आपस्तम्बगृह्यसूत्र १६।६)।
गोत्र एवं प्रवर पर सूत्रों, पुराणों एवं निबन्धों में मतभेदों से भरा इतना लम्बा-चौड़ा साहित्य है कि उसे एक व्यवस्था में लाना बहुत कठिन कार्य है। प्रवरमञ्जरी के लेखक ने भी ऐसा ही कहा है।
पहले हमें यह समझना है कि सूत्रों एवं निबन्धों में गोत्र का क्या अर्थ है और वह प्रवर से किस प्रकार सम्बन्धित है। गोत्र एवं प्रवर के विषय में हमें निम्नलिखित श्रौत सूत्रों में पर्याप्त सामग्री मिलती है-आश्वलायन (उत्तरषट्क ६, खण्ड १०-१५), आपस्तम्ब (२४वाँ प्रश्न) एवं बौधायन (अन्त का प्रवराध्याय)। प्रवरमञ्जरी के कथनानुसार बौधायन का प्रवराध्याय सर्वोच्च है।
बौधायनश्रौतसूत्र के अनुसार विश्वामित्र, जमदग्नि, भरद्वाज, गौतम, अत्रि, वसिष्ठ एवं कश्यप सात ऋषि हैं और अगस्त्य आठवें ऋषि हैं। इन्हीं आठों की सन्ताने गोत्र हैं। यही श्रौतसूत्र यह भी कहता है कि यों तो सहस्रों, लक्षों, अर्बुदों की संख्या में गोत्र हैं, किन्तु प्रवर केवल ४९ हैं।
पुराणों में मत्स्य (१९५।२०२); वायु (८८ एवं ९९), स्कन्द (३।२) नामक पुराण गोत्रों एवं प्रवरों के बारे में उल्लेख करते हैं। महाभारत ने अनुशासनपर्व (४।४९-५९) में विश्वामित्र गोत्र की उपशाखाओं का वर्णन किया है। निबन्धों में स्मृत्यर्थसार (पृ० १४-१७), संस्कारप्रकाश (पृ० ५९१-६८०), संस्कारकौस्तुम (पृ० ६३७६९२), निर्णयसिन्धु, धर्मसिन्धु, बालंभट्टी ने बड़े विस्तार से गोत्रों एवं प्रवरों पर लिखा है। प्रवरमञ्जरी जैसे विशिष्ट अन्य भी हैं।
गोत्र के विषय में सामान्य धारणा यही है कि इससे किसी एक पूर्वज से चली आयी हुई पक्ति ज्ञात होती है, जिसमें सभी लोग आ जाते हैं। जब कोई अपना जमदग्नि-गोत्र कहता है तो इसका तात्पर्य यह है कि वह जमदग्नि ऋषि
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