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धर्मशास्त्र का इतिहास
गोद लिये हुए पुत्र के सापिण्ड्य-सम्बन्ध के विवाह, अशौच एवं श्राद्ध के विषय में बहुत से ग्रन्थ, यथा संस्कारकौस्तुभ ( पृ० १८२ - १८६), निर्णयसिन्धु ( पृ० २९० २९१ ), व्यवहारमयूख, संस्कारप्रकाश ( पृ० ६८८-६९४) एवं संस्काररत्नमाला - - विस्तार के साथ कहते हैं । अशौच एवं श्राद्ध के सापिण्ड्य के बारे में आगे लिखा जायगा । दत्तसपिण्डता के विवाह के विषय में कई एक विरोधी मत हैं। संस्कारप्रकाश ( पृ० ६९० ) के अनुसार गोद दिये। हुए पुत्र का वास्तविक पिता के साथ सापिण्ड्य सात पीढ़ियों तक रहता है और गोद लेनेवाले पिता के साथ तीन पीढ़ियों तक । संस्कारकौस्तुभ के अनुसार यदि दत्तक पुत्र का उपनयन वास्तविक पिता के यहाँ गया हो तो उसका सापिण्ड्य वास्तविक पिता के कुल में सात पीढ़ियों तक रहेगा, किन्तु यदि जातकर्म से लेकर उपनयन तक सारे संस्कार पालक पितृकुल में हुए हैं तो उसका सापिण्ड्य पालक - पितृकुल में सात पीढ़ियों तक रहेगा, किन्तु यदि केवल उपनयन ही पालक पितृकुल में हुआ है तो सापिण्ड्य केवल पाँच पीढ़ियों तक रहेगा। निर्णयसिन्धु के अनुसार दोनों कुलों में सात पीढ़ियों तक सापिण्ड्य पाया जायगा । इसी प्रकार बहुत-से मतभेद हैं, जिनके पचड़े में स्थानाभाव के कारण नहीं पड़ा जा रहा है। दक्षिण में माध्यन्दिनी शाखा के देशस्थ ब्राह्मण लोग उस कन्या से विवाह नहीं करते जिसके पिता का गोत्र लड़के ( होनेवाले पति) के नाना के गोत्र के समान हो । मनु ( ३।५ ) ने लिखा है- "वह कन्या जो वर की माता से सपिण्ड सम्बन्ध न रखनेवाली है और न वर के पिता की सगोत्र है, विवाहित की जा सकती है ( किन्तु यह विवाह द्विजों में मान्य है ) ।" मनु के इस श्लोक की व्याख्या में कुल्लूक, मदनपारिजात, दीपकलिका, उद्वाहतत्त्व नामक टीकाकारों के मत जाने जा सकते हैं। इन लोगों के मत से नाना के गोत्र वाली कन्या से विवाह वर्जित है । मेधातिथि ने ( मनु ३१५) तो नाना के गोत्र वाली कन्या से विवाह करने पर चान्द्रायण व्रत का प्रायश्चित्त बताया है और कन्या को छोड़ देने को कहा है। इस विषय में हरदत्त ने भी यही बात कही है। आपस्तम्बधर्मसूत्र ( २।५।११।१६) की टीका में शातातप को उद्धृत करते हुए हरदत्त ने अपनी बात कही है। और देखिए कुल्लूक, स्मृतिचन्द्रिका (१, पृ० ६९), हरदत्त ( आपस्तम्बधर्मसूत्र २/५/११/१६ ), गृहस्थरत्नाकर ( पृ० १० ), उद्वाहतत्त्व ( पृ० १०७ ) तथा अन्य निबन्ध, जिनमें व्यास का यह मत उद्धृत किया गया है कि कुछ लोग माता के गोत्र की कन्या से विवाह करना अच्छा नहीं समझते, किन्तु यदि कन्या का गोत्र अज्ञात हो तो विवाह किया जा सकता है, विवाह हो जाने पर स्त्री अपना मौलिक गोत्र त्याग कर पति के गोत्र की हो जाती है। अतः उपर्युक्त " माता के गोत्र" का तात्पर्य है माता का मौलिक गोत्र अर्थात् नाना का गोत्र ।
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बायभाग एवं रघुनन्दन का मत, जिसे बंगाली सम्प्रदाय बड़ी महत्ता देता है, सपिण्ड की व्याख्या में मिताक्षरा से मेल नहीं खाता । इस मत में 'पिण्ड' का अर्थ है वह " भात का पिण्ड या गोलक" जो पितरों को श्राद्ध के समय दिया जाता है । परन्तु जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं, मिताक्षरा के अनुसार 'पिण्ड' का अर्थ है 'शरीर' या 'शरीर के अवयव ।' सपिण्ड का अर्थ है "वह जो दूसरे से, भोजन आहुति देने के कारण, सम्बन्धित हो ।” दायभाग के लेखक ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन वसीयत को ध्यान में रखकर किया है और अशोच के सन्दर्भ में सापिण्डघ -सम्बन्ध को भिन्न रूप में समझने को कहा है। दायभाग के प्रणेता जीमूतवाहन ने यह सापिण्ड्य-सम्बन्ध वाला सिद्धान्त विवाह के विषय में नहीं रखा है। उनका सिद्धान्त है कि वसीयत के बारे में मुख्य बात अथवा कारण है वह उपकारकत्व ( आध्यात्मिक लाभ ) जो पिण्ड देने पर मरे हुए व्यक्ति को प्राप्त होता है। जीमूतवाहन ने इस विषय में अपना मत या अपनी व्याख्या मनु ( ९/१०६) पर आश्रित मानी है । अपने सापिण्ड्य सिद्धान्त के लिए वे दो कथनों में विश्वास करते हैं, यथा बौधायनधर्मसूत्र ( १।५।११३ - ११५ ) एवं मनु ( ९।१८६-१८७ ) । बौधायन के अनुसार "प्रपितामह, पितामह, पिता एवं अपने सहोदर भाई, सवर्ण पत्नी के पुत्र, पौत्र, प्रपोत्र, ये सभी अविभाजित दाय के भागी होते हैं और सपिण्ड कहे जाते हैं । किन्तु विभाजित दाय के भागी को सकुल्य कहते हैं। इस प्रकार सन्तान रहने पर भी उन्हें घन प्राप्त हो सकता है;
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