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विवाह और सपिन
२८३ सपिण्डों के अमाव में सकुल्यों को धन मिलता है।" मनु (९।१८६-१८७) के अनुसार "तीन को तर्पण अवश्य देना चाहिए, तीन को पिण्ड मिलता है, चौथा तर्पण एवं पिण्ड देनेवाला होता है, पाँचवाँ कोई नहीं है। मरनेवाले के सपिण्डों में जो सर्वसन्निकट होता है उसी को धन मिल जाता है।" जीमूतवाहन ने मनु के उपर्युक्त कथन की व्याख्या यों की हैजीवित व्यक्ति अपने तीन पुरुष-पितरों को पिण्ड देता है, किन्तु जब वह स्वयं मर जाता है, उसका पुत्र सपिण्डीकरण श्राद्ध करता है; " इस प्रकार वह अपने पितरों के साथ एक हो जाता है और अपने पितामह तथा पिता के साथ तीन पिण्डों का अधिकारी होता है और उसका पुत्र इस प्रकार अपने प्रपितामह, पितामह तथा पिता को पिण्डदान करता है। अत: वे, जिन्हें वह पिण्ड देता है, और वे जो उसे पिण्ड देते हैं, "अविभक्त-दायाद सपिण्ड" कहे जाते हैं। जीमूतवाहन के विरोध में कई एक सिद्धान्त रखे जा सकते हैं। सर्वप्रथम वे बौधायन के वाक्य के आधार पर पिण्ड के अर्थ को दाय के साथ जोड़ते हैं, जिसके लिए कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है। बौधायन ने केवल सपिण्ड की अर्थात् उन लोगों की चर्चा की है, जो केवल अविभक्त कुल में रहते हैं और जिनका धन अभी विभाजित नहीं हुआ है। दूसरे, स्वयं जीमूतवाहन अपने तर्क पर पूरा भरोसा नहीं रखते दृष्टिगोचर होते। - दायक्रमसंग्रह के लेखक एवं दायभाग के टीकाकार श्रीकृष्ण, स्मृतितत्त्व तथा अन्य ग्रन्थों के लेखक रघुनन्दन तथा अन्य लेखक दायभाग के नियमों को विस्तार से समझाते हैं। रघुनन्दन ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ उद्वाहतत्त्व में मत्स्यपुराण का उद्धरण दिया है-“पूर्वजों में चौथा एवं अन्य (उसके ऊपर दो) लेप (पके चावल के पिण्ड-निर्माण के समय पिण्ड बनाने वाले के हाथ में बचे हुए अंश) के भागी होते हैं, पिता एवं अन्य शेष (अर्थात् कर्ता के ऊपर दो) पिण्ड के भागी होते हैं, जो पिण्ड देता है वह सातवाँ होता है; सापिण्ड्य सात पीढ़ियों तक जाता है।" विवाह के लिए सापिण्डय की कोई परिभाषा रघुनन्दन द्वारा नहीं दी गयी है, किन्तु कई ग्रन्थों में पायी जाने वाली “पिता से सातवीं पीढ़ी तथा माता से पांचवीं पीढ़ी" की चर्चा में पाये जानेवाले मतभेद पर विवेचन उन्होंने अवश्य किया है। उन्होंने पितृबन्धुओं एवं मातृबन्धुओं का उल्लेख किया है। उनके अनुसार पितामह की बहिन के लड़के, पितामही की बहिन के लड़के और अपने पिता के मामा के लड़के पितृबन्धु कहे जाते हैं; तथा व्यक्ति की माता के पिता (नाना) के भाई के लड़के, माता की माता (नानी) की बहिन के लड़के, माता के मामा के पुत्र मातृबन्धु कहे जाते हैं। विवाह के लिए हमें इन पर विचार करना पड़ता है और प्रतिबन्ध स्वीकार करना पड़ता है।
दायमाग सपिण्ड-विवाह के लिए किसी वैदिक वचन का उद्धरण नहीं देता। किन्तु मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य ११५२) तीन वैदिक वचनों पर आश्रित है, जिसकी चर्चा ऊपर यथास्थान हो चुकी है।
सन्निकट सपिण्डों में विवाह क्यों वर्जित माना जाता है ? इस विषय में मानव-शास्त्रियों ने कई सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। वेस्टरमार्क (हिस्ट्री आव ह्यूमन मैरेज़, जिल्द २, पू०७१-८१) एवं रिवर्स (मैरेज आव कजिन्स इन इण्डिया, जे० आर० ए० एस० १९०७, पृ० ६११-६४०) ने कहा है कि लोग सन्निकट लोगों में विवाह करने को व्यभिचार समझते थे। भारत में सपिण्ड-विवाह पर प्रतिबन्ध सम्भवतः दो कारणों से था-(१) यदि सन्निकट सम्बन्धी आपस में विवाह सम्बन्ध स्थापित करें तो उनके दोष कई गुने रूप में उनकी सन्तानों में बढ़ जायेंगे तथा (२) यदि सनिकट लोगों में विवाह सम्बन्ध स्थापित होंगे तो गुप्त प्रेम की परम्पराएं गूंज उठेगी और समाज में अनैतिकता का राज्य बढ़ जायगा और उन कन्याओं के लिए, जो एक ही घर में कई सनिकट एवं दूर के सम्बन्धियों के साथ रहती हैं, वर पाना कठिन हो जायगा।
१७. 'सपिजीकरण' में चार पिप बनाये जाते हैं, एक मृतक के लिए और तीन उसके तीन पितरों के लिए। वा पिन पुनः एक बना दिये जाते हैं, जिससे वो प्रेत है वह इन पितरों के साथ मिलकर पितृलोक में निवास करे।
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