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धर्मशास्त्र का इतिहास
(७) स्तन-प्रतिधान या स्तनप्रदान-इसके द्वारा बच्चे को स्तनपान कराने की क्रिया की जाती है। बृहदारण्यकोपनिषद्, पारम्बार०, वाजसनेयी संहिता, आपस्तम्ब०, भारद्वाज आदि ने इसकी चर्चा की है। कहीं एक स्तन के लिए और कहीं दोनो के लिए मन्त्रोच्चारण की व्यवस्था की गयी है।
(८) देशाभिमन्त्रण (देशाभिमर्शन)-जहाँ शिश् उत्पन्न होता है, उस स्थान को छूना तथा पृथिवी को सम्बोधित करना होता है। पारस्कर भारद्वाज एवं हिरण्यकेशि० में यह वणित है।
(९) नामकरण (बच्चे का नाम रखना)--जन्म के दिन ही बृहदारण्यकोपनिषद्, आश्वलायन, शांखायन, गोभिल, खादिर तथा अन्य धर्मशास्त्रकारों ने नाम रखने की बात चलायी है। आश्वलायन (१।१५।४ एवं १०) ने दो नामो की बात नही है, जिनमें एक को सभी लोग नाम सकते हैं, किन्तु दूसरे को उपनयन तक केवल माता-पिता ही जान सकते हैं। सर्वसाधारण की जानकारी वाले नाम के लिए विस्तार के साथ नियमादि बताये गये हैं। शांखायन ने गुप्त नाम के लिए विस्तार से विधान बताया है और साधारण नाम के लिए जन्म के उपरान्त दसवाँ दिन ही उपयुक्त माना है। आपस्तम्बगृह्यसूत्र (१५।२-३ एवं ८) ने जन्म के समय नक्षत्र के अनुसार गुप्त नाम रखने की तथा दसवें दिन वास्तविक नाम रखने की व्यवस्था दी है। गोभिल एवं खादिर ने सोप्यन्तीकर्म में नाम रखने को कहा है, और कहा है कि यह नाम गुप्त है।
(१०) भूत-प्रेतों को भगाना--आश्वलायन एवं शांखायन इस विषय में मौन हैं। बहुत से सूत्रों ने इस विषय में लम्बी चर्चाएं की हैं और ऐन्द्रजालिक मन्त्रों के उच्चारण की व्यवस्था दी है। आपस्तम्ब ने सरसों के बीज एवं धान की भूसी को आठ मन्त्रों के साथ अग्नि में तीन बार डालने को कहा है। कुछ अन्तरों के साथ यही बात भारद्वाज, पारस्कर आदि में भी है।
इसी सिलसिले में कुछ गौण बातों की चर्चा भी हो जानी चाहिए। वौधायन, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी एवं वैखानस ने स्पष्ट लिखा है कि शिशु को स्नान करा देना चाहिए। हिरण्यकशिगृह्यसूत्र एवं वैखानस में परशु (फरसा), सोना तथा प्रस्तर रखने की व्यवस्था है, जो शक्ति के प्रतीक हैं, इसी प्रकार पारस्कर, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी, भारद्वाज एवं वैखानस में जलपूर्ण पात्र को जच्चा और बच्चे के सिर की ओर रखने को कहा गया है। इन सूत्रों में वैखानस को छोड़कर किसी में भी ज्योतिष-सम्बन्धी वाते नहीं उल्लिखित हैं। वैखानस (३।१४) ने लिखा है कि जब बच्चे की नाक दिखाई पड़ जाय, ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति की जाँच कर लेनी चाहिए और भविष्य कथन के अनुसार ही आगे चलकर उसका पालन-पोषण करना चाहिए, जिससे कि वह सम्भावित शुभ गुणों का विकास कर सके। आपस्तम्ब एवं बौधायन के अनुसार मधु, दही एवं घृत के शेषांश को अपवित्र स्थानों में नहीं फेंकना चाहिए, उन्हें गौशाला में रख देना चाहिए। यह कृत्य क्रमशः अप्रचलित होता चला गया। सम्भवतः नवजात शिशु के साथ इतना लम्बा-चौड़ा संस्कार सुविधाजनक नहीं ऊँचा, क्योंकि हम आज ये बातें केवल ग्रन्थों में ही मिलती हैं।
स्मृतिचन्द्रिका न हारीत, शंख, जैमिनि का उद्धरण देते हुए कहा है कि नाल कटने के पूर्व अशौच नहीं माना जाता। तब तक संस्कार किया जा सकता है; तिल, मोना, परिधान, धान्य आदि का दान किया जा सकता है। कुछ सूत्रों के अनुसार पिता को जातकर्म करने के पहले स्नान कर लेना चाहिए। स्मृतिचन्द्रिका ने प्रचेता, व्यास तथा अन्य लोगों का मत प्रकट करते हुए लिखा है कि जातकर्म में नान्दीश्राद्ध भी कर लेना चाहिए। धर्मसिन्धु के अनुसार इसमें स्वस्तिवाचन, पुण्याहवाचन एवं मातृकापूजन किया जाना आवश्यक है। ।
मध्यकाल के निबन्धकारों ने कृष्णपक्ष की चतुर्दशी, अमावस्या, मूल, आश्लेषा मघा एवं ज्येष्ठा नक्षत्रों तथा अन्य ज्योतिष-सम्बन्धी क्रूर समयों, यथा व्यतीपात, वैधृति, संक्रान्ति में सन्तानोत्पत्ति से उत्पन्न प्रभावों को दूर करने
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