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धर्मशास्त्र का इतिहास पूर्वकाल में सहारे के लिए, आचार्य के पशुओं को नियन्त्रण में रखने के लिए, रात्रि में जाने पर सुरक्षा के लिए एवं नदी में प्रवेश करते समय पथप्रदर्शन के लिए दण्ड की आवश्यकता पड़ती थी।"
बालक के वर्ण के अनुसार दण्ड की लम्बाई में अन्तर था। आश्वलायनगृह्यसूत्र (१।१९।१३), गौतम (१। २५), वसिष्ठधर्मसूत्र (१११५५-५७), पारस्करगृह्यसूत्र (२५), मनु (२०४६) के मतों से ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य का दण्ड क्रम से सिर तक, मस्तक तक एवं नाक तक लम्बा होना चाहिए। शांखायनगृह्मसूत्र (२।१।२१-२३) ने इस अनुक्रम को उलट दिया है, अर्थात् इसके अनुसार ब्राह्मण का दण्ड सबसे छोटा एवं वैश्य का सबसे बड़ा होना चाहिए। गौतम (१।२६) का कहना है कि दण्ड घुना हुआ नहीं होना चाहिए। उसकी छाल लगी रहनी चाहिए, ऊपरी भाग टेढ़ा होना चाहिए। किन्तु मनु (२०४७) के अनुसार दण्ड सीधा, सुन्दर एवं अग्निस्पर्श से रहित होना चाहिए। शांखायनगृह्यसूत्र (२।१३।२-३) के अनुसार ब्रह्मचारी को चाहिए कि वह किसी को अपने एवं दण्ड के बीच से निकलने न दे, यदि दण्ड, मेखला एवं यज्ञोपवीत टूट जाये तो उसे प्रायचित्त करना चाहिए (वैसा ही जैसा कि विवाह के समय वरयात्रा का रथ टूटने पर किया जाता है)। ब्रह्मचर्य के अन्त में यज्ञोपवीत, दण्ड, मेखला एवं मृगचर्म को जल में त्याग देना चाहिए। ऐसा करते समय वरुण के मन्त्र (ऋग्वेद ११२४१६) का पाठ करना चाहिए या केवल 'ओम्' का उच्चारण करना चाहिए।" मनु (२०६४) एवं विष्णुधर्मसूत्र (२७।२९) ने भी यही बात कही है।
मेखला गौतम (१।१५), आश्वलायनगृह्य० (१।१९।११), बौधायनगृह्य० (२।५।१३), मनु (२।४२), काठकगृह्य० (४१।१२), भारद्वाज० (१।२) तथा अन्य लोगों के मत से ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य बच्चे के लिए क्रम से मुञ्ज, मूर्वा (जिससे प्रत्यंचा बनती है) एवं पटुआ की मेखला (करधनी) होनी चाहिए। मनु (२।४२-४३) ने पारस्करगृह्यसूत्र एवं आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।१।२।३५-३७)" की भांति ही नियम कहे हैं किन्तु विकल्प से कहा है कि क्षत्रियों के लिए मूंज तथा लोह से गुंथी हुई हो सकती है तथा वैश्यों के लिए सूत का धागा या जुओ की रस्सी या तामल (सन) की छाल का घागा हो सकता है। बौधायनगृह्य० (२।५।१३) ने मूंज की मेखला सबके लिए मान्य कही है। मेखला में कितनी गाँठे होनी चाहिए, यह प्रवरों की संख्या पर निर्भर है।
उपनयन-विधि आश्वलायनगृह्यसूत्र में उपनयन संस्कार का संक्षिप्त विवरण दिया हुआ है, जो पठनीय है। स्थानाभाव के कारण वह वर्णन यहाँ उपस्थित नहीं किया जा रहा है। उपनयन-विधि का विस्तार आपस्तम्बगृह्यसूत्र, हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र एवं गोमिलगृह्यसूत्र में पाया जाता है। कुछ बातें यहाँ दी जा रही हैं, जिससे मतैक्य एवं मतान्तर पर कुछ
१६. दण्डाजिनोपवीतानि मेखलां चैव धारयेत्। याज्ञवल्क्य ११२९; तत्र दण्डस्य कार्यमवलम्बनं गवादिनिवारणं तमोवगाहनमप्सु प्रवेशनमित्यादि । अपरार्क।
१७. उपवीतं च दण्डे बध्नाति । तदप्येतत् । यज्ञोपवीतवण्वं च मेखलामजिनं तथा । जुहुयाबप्सु व्रते पूर्णे वारुण्यर्चा रसेन । शांखायनगृह्य० २।३९-३१; 'रस' का अर्थ है 'ओम्'।
१८. ज्या राजन्यस्य मौजी वायोमिश्रिता। आवीसूत्रं वैश्यस्य । सरी तामली वेत्येके । आपस्तम्बधर्मसूत्र १२११२३३४-३७ । गोभिल (२।१०।१०) की टीका में तामल को शण (सन) कहा गया है।
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