________________
२१ गायत्री का शिरः दुहराना चाहिए।" प्राणायाम के तीन अंग है-पूरक (बाहरी वायु भीतर लेना), कुम्भक (लिये हुए श्वास को रोके रखना अर्थात् न तो श्वास छोड़ना न ग्रहण करना) एवं रेचक (फेफड़ों से वायु बाहर निकालना)। पनु ने प्राणायाम की प्रशंसा में बहुत कुछ कहा है (६७०-७१)।
मार्बन में तात्र, उदुम्बरकाष्ठ या मिट्टी के बरतन में रखे हुए जल को कुश से छिड़का जाता है। मार्जन करते समय 'ओम्', व्याहृतियाँ, गायत्री एवं 'आपो हि ष्ठा' (ऋ० १०१।९-३)नामक तीन मन्त्र दुहराये जाते हैं। दोषामनधर्मः (२।४।२) ने अन्य वैदिक मन्त्र भी जोड़ दिये हैं, किन्तु मानवगृह्यसूत्र (१११।२४), याज्ञवल्क्य (११२२) आदि ने मार्जन के लिए केवल उपर्युक्त 'आपो हि ष्ठा०' नामक तीन मन्त्रों के लिए ही व्यवस्था दी है।"
अघमर्षण (पाप को भगाना) में गौ के कान की भांति दाहिने हाथ का रूप बनाकर, उसमें जल लेकर, नाक के पास रखकर, उस पर श्वास लेकर (इस भावना से कि अपना पाप भाग जाय) "ऋतं च०" (ऋ० १०१९०११-३) नामक तीन मन्त्रों के साथ पृथिवी पर बायीं ओर जल फेंक दिया जाता है।
अम्ब (सम्मान के साथ सूर्य को जलार्पण) में दोनों जुड़े हुए हाथों में जल लेकर, गायत्री मन्त्र कहते हुए, सूर्य की ओर उन्मुख होकर तीन बार जल गिराना होता है। यदि सड़क पर हो या कारागृह में हो, अर्थात् यदि जल सुलभ म हो तो धूल से ही अर्घ्य देना चाहिए।
गायत्री के जप के विषय में सावित्री-उपदेश नामक प्रकरण आर देखिए। गायत्री के जप के विषय में विस्तृत विवेचन पाया जाता है। इस पर अपरार्क (पृ० ४६-४८), स्मृतिचन्द्रिका (पृ० १४३-१५२), चण्डेश्वर के गृहस्थरलाकर (पृ० २४१-२५०) एवं आह्निकप्रकाश (पृ. ३११-३१६) द्वारा प्रस्तुत विस्तार यहाँ नहीं दिया जा रहा है। आह्निक के प्रकरण में कुछ बातें बतलायी जायेगी।
उपस्थान में बौधायन के मतानुसार 'उद्वयम्' (ऋखेद ११५०।१०), 'उदुत्पम्' (१० ११५०११), दिनू' (ऋ० १११५।१), 'तच्चक्षुः०' (१० ॥६६।१६), 'य उदगात्' (ते. आरण्यक ४।४२१५) के साथ सूर्य की प्रार्थना करनी चाहिए। मनु (२११०३) के मत से जो व्यक्ति प्रातः एवं सायं सन्ध्योपासना नहीं करता, उसे विजों की श्रेणी से अलग कर देना चाहिए। गोमिलस्मृति (२११) के अनुसार ब्राह्मण्या तीन सन्ध्याओं में पाया जाता है और जो सन्ध्योपासन नहीं करता, वह ब्राह्मण नहीं है। बौधायन-धर्मसूत्र (२।४।२०) का कहना है कि राजा को
४९. भूर्भुवः स्वमहर्जनस्तपः सत्य तथैव च। प्रत्याकारसमायुमास्तमा तत्सवितुर्वरम् ।। ओमापीज्योतिरिक्त लिए पश्चातायोजयेत् । गिरावर्तनयोगात प्राणायामस्तु शब्दितः॥ गोगाजवल्क्य (स्मृशिचनिका, पृ० १४१, भाग १ में उपत)।
५०. सुरभिमाया असिगाभिरिणीभिहिरण्यवर्णानिः पापमानामिाहृतिभिरन्यश्च पवित्ररात्वन प्रोत्र प्रयतो भवति । बी०म० (२०१२)। सुरभिमती ऋग्वेद का रविकानो मावि (४॥३९१६) मंत्र है, अख्तिया है.४० १०९।१-३, वारनी है मे वरण (ऋ० १२२५।१९), सत्वा पामि (ऋ० १०२४०११), अद है ( २२॥१४) एवं यत्किचे (१०८९५) । पावमानी स्वाविष्च्या भविष्टना (०९।११) है, किन्तु कुष्ठ लोगो के मत से २० ९।६७।२१-२७ वाले मन्त्र हैं। विरसो मार्ननं कुर्यात्तुनः सोवनियुभिः। प्रणवो भूर्भुवः स्वश्च सावित्री व तृतीयका। मदेवतस्त्रयूचश्व चतुर्व प्रति मार्जनम् ॥ गोमिलस्मृति (२०४५); अन्नवतन्यूच ऋग्वेद (१०६६।१-३) में है। तैत्तिरीय बाह्मण (३३९७) "आपण हि ष्ठा भयोमुष इत्यनिर्बियन्ते। मालो व सर्वा रेवता", पाया बाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org