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धर्मशास्त्र का इतिहास
बातें न करना आदि नियमों के पालन में कोई ढिलाई करता था तो उसे तीन कृच्छों का प्रायश्चित्त व्याहृतियों के साथ तथा प्रत्येक के साथ अलग-अलग होम करना पड़ता था। अन्य बड़े अपराधों के लिए अन्य प्रकार के कठिन प्रायश्चित्त आदि का विधान था। ब्रह्मचारी के लिए सम्भोग सबसे बड़ा गहित अपराध था। ऐसे अपराधी को अवकीर्णी कहा जाता था (तैत्तिरीय आरण्यक २।१८)। अन्य अपराधों के लिए देखिए बौधायनधर्म० (४।२।१०-१३), जैमिनि (६।८।२२), आपस्तम्बधर्म (१९।२७४८), वसिष्ठधर्मसूत्र (२३।१-३), मनु (२।१८७, १०१११८-१२१), याज्ञवल्क्य (३।२८०), विष्णुधर्म० (२८१४९-५०) । यहाँ इनके विस्तार की कोई आवश्यकता नहीं है।
नैष्ठिक ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी दो प्रकार के कहे गये हैं; उपकुर्वाण (जो गुरु को कुछ प्रतिदान देता था, देखिए मनु, २२२४५) एवं मैष्ठिक (जो मृत्यु-पर्यन्त वैसे ही रहता था)। 'निष्ठा' का अर्थ है अन्त या मृत्यु। मिताक्षरा (याज्ञ० ११४९) ने नैष्ठिक को इस प्रकार कहा है-"आत्मानं निष्ठाम् उत्कान्तिकालं नयतीति नैष्ठिकः ।" ये दो नाम हारीतधर्मसूत्र, दक्ष (१७) एवं कुछ अन्य स्मृतियों में आये हैं। 'नैष्ठिक' शब्द विष्णुधर्मसूत्र (२८।४६), याज्ञवल्क्य (.११४९), व्यास (१।४१) में भी आया है। जीवन भर ब्रह्मचारी रह जाने की भावना अति प्राचीन है। छान्दोग्योपनिषद् (२।२३।१) में आया है कि धर्म की तीसरी शाखा है उस विद्यार्थी (ब्रह्मचारी) की स्थिति जो अपने गुरु के कुल में मृत्यु पर्यन्त रह जाता है। इस विषय में देखिए गौतम (३।४-८), आपस्तम्बवर्म० (१११।४।२९), हारीतधर्मसूत्र, वसिष्ठधर्म० (७।४-६), मनु (२।२४३, २४४, २४७-२४९) एवं याज्ञवल्क्य (१।४९-५०)। गुरु के मर जाने पर गुरु-पत्नी एवं गुरुपुत्र (यदि ये दोनों योग्य हों तो) के साथ रह जाना चाहिए, या गुरु द्वारा जलायी हुई अग्नि की सेवा करते रहना चाहिए। नैष्ठिक ब्रह्मचारी परमानन्द प्राप्त करता है और पुनः जन्म नहीं लेता। वह जीवन भर समिधा, वेदाध्ययन, भिक्षा, भूमिशयन एवं आत्म-संयम में लगा रहता है। . कुब्ज, वामन, जन्मान्ध, क्लीब,पंगु एवं अति रोगी को नैष्ठिक ब्रह्मचारी हो जाना चाहिए, ऐसा विष्णु (अपराक द्वारा उद्धृत, पृ०७२)एवं स्मृतिचन्द्रिका (भाग १, पृ० ६३, संग्रह का उद्धरण) ने लिखा है। उन्हें वैदिक क्रियाओं को करने एवं पैतृक सम्पत्ति पाने का कोई अधिकार नहीं दिया गया है। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अन्धे एवं कुछ अंगों से शून्य लोग विवाह नहीं कर सकते थे। यदि सम्पत्तिशाली हों, तो वे विवाह कर सकते हैं, ऐसा देखने में आया है, यथा-धृतराष्ट्र।
___ यदि आरूढ नैष्ठिक ब्रह्मचारी अपने प्रण एवं व्रत से च्युत हो जाय तो उसके लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं है, ऐसा अत्रि (८११८) का वचन है। कुछ लोग यही बात संन्यासी के लिए कहते हैं। संस्कारप्रकाश (पृ० ५६४) के मत से व्रत-च्युत नैष्ठिक ब्रह्मचारी को व्रत-व्युत उपकुर्वाण ब्रह्मचारी से दूना प्रायश्चित्त करना चाहिए।
पतितसावित्रीक जिनका उपनयन संस्कार न हुआ हो, अर्थात् जिन्हें गायत्री का उपदेश न कराया गया हो और इस प्रकार जो पापी हैं तथा आर्य समाज से बहिष्कृत हैं, उन्हें पतित-सावित्रीक की उपाधि दी गयी है। गृहप एवं धर्मसूत्रों के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य के लिए क्रम से १६वें, २२वें तथा २४वें वर्ष तक उपनयन संस्कार की अवधि रहती है, किन्तु इन सीमाओं के उपरान्त उपनयन न करने पर वे सावित्री उपदेश के अयोग्य हो जाते हैं (आश्व. गृ० १।१९।५-७, बी० गु० ३।१३।५-६, आप० धर्म० १२१२१२२२, वसिष्ठ० ११७१-७५, मनु २१३८-३९ एवं याज्ञवल्क्य ११३७-३८)। ऐसे ही लोगों को पतित-सावित्रीक या सावित्री-पतित या व्रात्य कहा जाता है (मनु २२३९ एवं याज्ञ. ११३८)। ऐसे
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