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धर्मशास्त्र का इतिहास एक अन्य महत्वपूर्ण संकेत यह है कि अधिकांश गृह्यसूत्रों के मत से विवाहित व्यक्तियों को विवाह के उपरान्त यदि अधिक नहीं तो कम-से-कम तीन रातों तक संभोग से दूर रहना चाहिए। पारस्करगृह्य० (११८) के मत से विवाहित जोड़े को तीन रातों तक क्षार एवं लवण नहीं खाना चाहिए, पृथ्वी पर शयन करना चाहिए; वर्ष भर, १२ रातों तक, ६ रातों तक या कम-से-कम ३ रातों तक संभोग नहीं करना चाहिए (देखिए आश्वलायन० १,८।१०, आपस्तम्बगृ० ८५८-९, शांखायन० १११७१५, मानव० १।१४।१४, काठक० ३०११, खादिरगृ० १।४।९ आदि)। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि गृह्यसूत्र-काल में कन्या का विवाह युवती होने पर किया जाता था, नहीं तो संभोग किस प्रकार सम्भव हो सकता था, जैसा कि कम-से-कम तीन रातों के प्रतिबन्ध से प्रकट हो जाता है। लगभग १२वीं शताब्दी के धर्मशास्त्रकार हरदत्त ने भी स्वीकार किया है कि उनके समय में विवाह के उपरान्त संभोग आरम्भ हो जाता था, अर्थात् उन दिनों कन्या के विवाह की अवस्था कम-से-कम १४ वर्ष थी।
अधिकांश गृह्यसूत्रों में एक क्रिया का वर्णन है जिसे चतुर्थीकर्म कहते हैं। यह क्रिया विवाह के चार दिनों के उपरान्त सम्पादित होती है (देखिए गोभिल २।५, शांखायन १११८-१९, खादिर १।४।१२-१६, पारस्कर ११११, आपस्तम्ब ८।१०-११, हिरण्यकेशि ११२३-२४ आदि)। इसे हमने बहुत पहले उल्लिखित किया है और यह पश्चात्कालीन गर्भाधान का द्योतक है। विवाह के चार दिनों के उपरान्त के संभोग से स्पष्ट प्रकट होता है कि उन दिनों युवती कन्याओं का विवाह सम्पादित होता था।
कुछ गृह्यसूत्रों में ऐसा वर्णन आया है कि यदि विवाह की क्रियाओं के बीच में कभी मासिक धर्म प्रकट हो जाय तो प्रायश्चित्त करना चाहिए (देखिए बौधायन० ४।१।१०, कौशिकसूत्र ७९।१६, वैखानस ६।१३, अत्रि)। इससे भी प्रकट होता है कि विवाह के समय लड़कियाँ जवान हो चुकी रहती थीं।
गौतम (१८।२०-२३) के अनुसार युवती होने के पूर्व ही कन्या का विवाह कर देना चाहिए। ऐसा न करने पर पाप लगता है। कुछ लोगों का कहना है कि परिधान धारण करने के पूर्व ही कन्या का विवाह कर देना चाहिए। विवाह के योग्य लड़की यदि पिता द्वारा न विवाहित की जा सके तो वह तीन मास की अवधि पार करके अपने मन के अनुकूल कलंकहीन पति का वरण कर सकती है और अपने पिता द्वारा दिये गये आभूषण लौटा सकती है। उपर्युक्त कथन से विदित होता है कि गौतम के पूर्व (लगभा ईसापूर्व ६००) भी कुछ लोग थे जो छोटी अवस्था में कन्याओं का विवाह कर देते थे। गौतम ने इस व्यवहार को अच्छा नहीं माना है और युवती होने के पूर्व कन्या के विवाह की बात चलायी है एवं यहाँ तक कहा है कि युक्ती हो जाने पर यदि पिता कन्या का विवाह करने में अशक्त हो तो स्वयं कन्या अपना विवाह रच सकती है। युवती होने के उपरान्त विवाह होने पर पति या पत्नी पर कोई पाप नहीं लगता। हाँ, माता या पिता को कन्या के युवती होने के पूर्व विवाह न कर देने पर पाप लगता है। मनु (९।८९-९०) ने लिखा है कि एक युवती भले ही जीवन भर अपने पिता के घर में अविवाहित रह जाय, किन्तु पिता को चाहिए कि वह उसे सद्गुणविहीन व्यक्ति से विवाहित न करे। लड़की युवती हो जाने के उपरान्त तीन वर्ष बाट जोहकर (इस बीच में वह अपने पिता या भाई पर विवाह के लिए भरोसा करेगी) अपने गुणों के अनुरूप वर का वरण कर सकती है। यही
'नग्निकामासन्नातवाम् ।... तस्माद्वस्त्रविक्षेपणाही गग्निका मैथुनाहेत्यर्थः', मातृत्त; 'बन्धुमती कन्यामस्पृष्टमथुनामुपयच्छेत...यवीयसी नग्निका श्रेष्ठाम् ।' मानव० (११७८)। नग्निकां तु वदेत्कन्यां यावर्तुमती भवेत् । ऋतुमती त्वनग्निका तां प्रयच्छेत्तु नग्निकाम् ॥ आप्ता रजसो गौरी प्राप्ते रजसि रोहिणी। अव्यंजिता भवेत्कन्या कुचहीना व नग्निका ॥ गृह्यसंग्रह।
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