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विवाह की अवस्था है। महाभारत (आश्वमेधिकपर्व ५६।२२-२३) में एक स्थल पर यह आया है कि वर की अवस्था १६ वर्ष की होनी चाहिए, और गौतम अपनी कन्या का विवाह उत्तंक से करने को तैयार है यदि उत्तंक की अवस्था १६ वर्ष की हो। समापर्व (६४।१४) एवं वनपर्व (५।१५) में एक ऐसी लड़की की उपमा दी गयी है जो ६० वर्ष के पुरुष से विवाह नहीं करना चाहती। इससे स्पष्ट है कि उन दिनों ६० वर्ष के पुरुष से भी कन्याओं का विवाह सम्भव था। महाभारत (अनुशासन-पर्व ४४।१४) में वर एवं कन्या की विवाह अवस्थाएँ क्रम से ३० तथा १० या २१ तथा ७ हैं, किन्तु उवाहतत्त्व (पृ० १२३) एवं श्रौतपदार्थनिर्वचन (पृ० ७६६) ने महाभारत को उद्धृत कर लिखा है कि ३० वर्ष का पुरुष १६ वर्ष की कन्या से विवाह कर सकता है (किन्तु यहाँ 'षोडश-वर्षाम्' के स्थान में 'दश-वर्षाम्' होना चाहिए, 'षोडशवर्षाम्' मुद्रण-अशुद्धि है)। ___ ऋग्वेद में विवाहावस्था के विषय में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं प्राप्त होता, किन्तु कन्याएँ अपेक्षाकृत बड़ा अवस्था प्राप्त होने पर ही विवाहित होती थीं। ऋग्वेद (१०।२७।१२) में आया है कि जब कन्या सुन्दर है और आभूषित है तो वह स्वयं पुरुषों के झुण्ड में से अपना मित्र ढूंढ़ लेती है। इससे स्पष्ट है कि लड़कियों इतनी प्रौढ होने पर विवाह करती थीं, जब कि वे स्वयं अपना पति चुन सकें। विवाह-मन्त्रों (ऋग्वेद १०८५।२६-२७, ४६) से पता चलता है कि विवाहित लड़कियाँ बच्ची-पत्नियों नहीं, प्रत्युत प्रौढ होती थीं। एक ओर यह भी पता चलता है कि नासत्यों (आश्विनी) ने उस विमद को एक स्त्री दी जो अभी अभंग (कम अवस्था का) था। किन्तु यहाँ पर विमद को अन्य राजाओं की अपेक्षा कम अवस्था का कहा गया है। ऋग्वेद की दो ऋचाओं (१११२६।६-७) से पता चलता है कि लड़कियाँ युवा होने के पूर्व विवाहित होती थीं। ऋग्वेद (११५१३१३) में एक स्थान पर ऐसा आया है कि इन्द्र ने बुड्ढे कक्षीवान को वृचया नामक स्त्री दी जो अर्भा (बच्ची) थी। किन्तु 'अर्भा' शब्द केवल 'महते' के विरोध में प्रयुक्त हुआ है। ‘महते' शब्द का अर्थ है बड़ा जो कक्षीवान् के लिए प्रयुक्त हुआ है और किसी निश्चित अवस्था का द्योतक नहीं है। यहाँ केवल इतना ही कहा जा सकता है कि ऋग्वेद में कन्याएं किसी भी अवस्था में (युवा होने के पूर्व या उपरान्त) विवाहित हो सकती थीं और कुछ जीवन भर अविवाहित रह जाती थीं। अन्य संहिताएं एवं ब्राह्मणग्रन्थ विवाह-अवस्था पर कोई प्रकाश डालते दृष्टिगोचर नहीं होते। छान्दोग्योपनिषद् में कहा गया है कि उपस्ति चाक्रायण कुरु देश में अपनी पत्नी के साथ रहते थे जो 'आटिकी' (शंकराचार्य के अनुसार अविकसित कन्या) थी।
गृह्यसूत्रों एवं धर्मसूत्रों के अनुशीलन से पता चलता है कि लड़कियाँ युवावस्था के बिलकुल पास पहुँच जाने या उसके प्रारम्भ होने के उपरान्त ही विवाहित हो जाती थीं। हिरण्यकेशि० (१।१९।२), गोमिल० (३।४।६), मानव० (११७४८), वैखानस (६।१२) ने अन्य लक्षणों के साथ चुनी जाने वाली कन्या का एक लक्षण 'नग्निका' कहा है। टीकाकारों ने 'नग्निका' की कई व्याख्याएं उपस्थित की हैं। मातृदत्त ने हिरण्यकेशी की व्याख्या में नग्निका' को ऐसी कन्या कहा है जिसका मासिक धर्म बिलकुल सन्निकट है अर्थात् जो संभोग के योग्य है। मानवगृह्यसूत्र के टीकाकार अष्टावक्र के मत से 'नग्निका' वह कन्या है जिसने अभी जवानी की भावनाओं की अनुभूति नहीं की है। उन्होंने एक अर्थ यह बताया है-“नग्निका वह है जो बिना परिधान के भी सुन्दर लगे। गृह्यसंग्रह ने इसे अयुवा कन्या का बोधक पाना है।" वसिष्ठधर्मसूत्र (१७७०) के मत से नग्निका शब्द अयुवा का द्योतक है।
स्ववेहतः। स्ववर्षाद विधिपश्चाविम्यूनो कन्या समुद्हेत् ॥ अंगिरा (स्मृतिमुक्ताफल में उद्धृत, वर्णाश्रमधर्म, पृ०
१२५)।
१०. ताभ्यामनुज्ञातो भार्यामुपयच्छेत् सजातां नग्निकां ब्रह्मचारिणीमसगोत्राम्। हिरण्य० १२१९।२; धर्म०३५
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