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धर्मशास्त्र का इतिहास वसिष्ठधर्मसूत्र (८1१), मानवगृह्यसूत्र (११७८), वाराहगृह्यसूत्र (९), शंखधर्मसूत्र ने समान प्रवर वाली कन्या से विवाह अनुचित ठहराया है। कुछ गृह्यसूत्र, यथा आश्वलायन, पारस्कर गोत्र एवं प्रवर की समता के विषय में एक शब्द नहीं कहते, यह एक विचित्र बात है। किन्तु विष्णुधर्मसूत्र (२४।९), वैखानस (३।२), याज्ञवल्क्य (११५३), नारद (स्त्रीपुंस, ७), व्यास (२१२) तथा अन्य लोगों ने समान गोत्र एवं समान प्रवर वाले लोगों में विवाह-सम्बन्ध मना कर दिया है। गोभिल (३।४।५), मनु (३।५), वैखानस (३।२) एवं आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।५।११।१६) के मत से कन्या सपिण्ड नहीं होनी चाहिए, अर्थात् उसे वर की माता का सम्बन्धी नहीं होना चाहिए, किन्तु गौतम (४२), वसिष्ठ (८१२), विष्णुधर्मसूत्र (२४।१०), वाराह गृ० (९), शंखधर्म०, याज्ञवल्क्य (११५३) तथा अन्य लोग सात पोढ़ियों के उपरान्त पिता की ओर तथा पाँच पीढ़ियों के उपरान्त माता की ओर सपिण्ड में कोई प्रतिबन्ध नहीं रखते। व्यास-स्मृति ने न केवल सगोत्र विवाह मना किया है, बल्कि उस कन्या से भी, जिसकी माता तथा वर के गोत्र में समानता हो, विवाह करना मना किया है। . सगोत्र, सप्रवर या सपिण्ड विवाह पर जो प्रतिबन्ध लगाये गये उसके कारण थे। पूर्वमीमांसा का एक नियम है कि यदि कोई दृष्ट या जानने योग्य कारण हो और यदि उसका उल्लंघन कर दिया जाय तो प्रमुख कार्य अवैध (रद्द) नहीं हो पाता; किन्तु यदि कोई अदृष्ट कारण हो और उसका उल्लंघन हो जाय तो प्रमुख कार्य की वैधता की समाप्ति हो जा सकती है। रोगी या अधिक या कम अंगों वाली कन्या से विवाह न करने के नियम का कारण दृष्ट है और ऐसा विवाह दुःख और आलोचना का विषय बन जाता है। यदि ऐसी कन्या से कोई विवाह करे तो वह विवाह पूर्ण रूप से वैव माना जाता है। किन्तु सगोत्र एवं सप्रवर कन्या के साथ विवाह न करने का कारण अदष्ट है और यदि ऐसा सम्बन्ध हो जाय तो यह विवाह विवाह नहीं कहा जा सकता। अतः यदि कोई किसी सगोत्र, सप्रवर या सपिण्ड कन्या से विवाह करे तो वह कन्या नियमपूर्वक उसकी पत्नी नहीं हो सकती। सगोत्र, सप्रवर एवं सपिण्ड पर विस्तार से आगे लिखा जायगा।
अब पुरुष एवं स्त्री की विवाह-अवस्था पर विवेचन उपस्थित किया जायगा। इस विषय में इतना जान लेना आवश्यक है कि समो कालों में, भिन्न-भिन्न प्रान्तों एवं भिन्न-भिन्न जातियों में विवाह-अवस्था पृथक्-पृथक् मानी जाती रही है। पुरुष के लिए कोई निश्चित अवधि नहीं रखी गयी। पुरुष यदि चाहे तो जीवन भर अविवाहित रह सकता था, किन्तु मध्य एवं वर्तमान काल में लड़कियों के लिए विवाह अनिवार्य रूप से मान्य रहा है। वेदाध्ययन के उपरान्त पुरुष विवाह कर सकता था, यद्यपि वेदाध्ययन की परिसमाप्ति की अवधियों में विभिन्नताएँ रही हैं; यथा--१२, २४, ३६, ४८ या उतने वर्ष जिनमें एक वेद या उसका कोई अंश पढ़ लिया जा सके। प्राचीन काल में बहुधा १२ वर्ष तक ब्रह्मचर्य चलता था और ब्राह्मणों का उपनयन संस्कार ८वें वर्ष में होता था, अतः ब्राह्मणों में २० वर्ष की अवस्था विवाह के लिए एक सामान्य अवस्था मानी जानी चाहिए। मनु (९।९४) के मत से ३० वर्ष का पुरुष १२ वर्ष की लड़की से या २४ वर्ष का पुरुष ८ वर्ष की लड़की से विवाह कर सकता है। इसी के आधार पर विष्णुपुराण ने कन्या एवं वर की विवाह-अवस्थाओं का अनुपात ११३ रखा है।' अंगिरा के मत से कन्या वर से २, ३, ५ या अधिक वर्ष छोटी हो सकती
८. आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।५।११-१६) पर हरदत्त ने शंख को इस प्रकार उस्त किया है-पारानाहरेत् सदृशानसमानार्षेयानसम्बन्धानासप्तमपंचमात्पितृमातृबन्धुभ्यः। 'आर्षेय', 'आर्ष' एवं 'प्रदर' का अर्थ एक ही है। सप्रवर कन्या के साथ विवाह-सम्पादन के विषय में मनु मौन हैं।
९. वर्षरेकगुणां भार्यामहेत् त्रिगुणः स्वयम् । विष्णुपुराण ३।१०।१६; वयोषिका नोपयच्छन् वीर्घा कन्या
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