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आभम
२६५ है। स्पष्ट है, अति प्राचीन काल में भी ब्रह्मचर्य नामक जीवन-भाग प्रसिद्ध था। यही बात 'गृहस्थ' के विषय में भी लागू होती है (ऋग्वेद २।१।२, १०।८५।३६)। अग्नि को "हमारे गृह का गृहपति" कहा गया है। हाँ, 'वानप्रस्थ' के विषय में कोई भी स्पष्ट संकेत वैदिक साहित्य में नहीं मिलता। कुछ लोग ताण्ड्य महाब्राह्मण (१४।४।७) के 'वैखानस' शब्द को 'वानप्रस्थ' का समानार्थक मानते हैं, जैसी कि सूत्रों में ऐसी बात है भी। यदि यह अनुमान ठीक है तो तीसरे आश्रम वानप्रस्थ की ओर भी वैदिक काल में परोक्ष रूप से संकेत मिल जाता है। सूत्रों एवं स्मृतियों में वर्णित चतुर्थ आश्रम में 'यति' की चर्चा प्राचीन वैदिक साहित्य में अनुपलब्ध है। ऋग्वेद (८।३।९) में 'यति' शब्द कई बार आया, है, किन्तु अर्थ सन्देहास्पद है। तैत्तिरीय संहिता (६।२७।५), काठक संहिता (८५), ऐतरेय ब्राह्मण (३५।२), कौषीतकी उपनिषद् (३।१), अथर्ववेद (२।५।३), ताण्ड्य महाब्राह्मण (८१११४) में जो यति शब्द आया है, सम्भवतः वह किसी जाति-विशेष का सूचक है और है अनार्य तथा इन्द्र-विरोधी। यदि 'यति' एवं यातु शब्दों में कोई अर्थसाम्य है तो सम्भवतः 'यति' जादूगर का सूचक हो सकता है।
ऋग्वेद (१०।१३६।२) में 'मुनि' का वर्णन हुआ है, जो गन्दे परिधान धारण किये हुए कहा गया है।' ऋग्वेद (८।१७।१४) में इन्द्र मुनियों का सखा कहा गया है। एक स्थान पर मुनि देवों का मित्र कहा गया है (ऋग्वेद १०॥ १३६।४)। इससे यह स्पष्ट होता है कि ऋग्वेद के काल में भी दरिद्र-सा जीवन बिताने वाले, ध्यान में मग्न, शरीर को सुखा देनेवाले लोग थे, जिन्हें मुनि कहा जाता था। सम्भवतः ऐसे ही व्यक्ति अनार्यों में यति कहे जाते थे। किन्तु 'मुनि' एवं 'यति' शब्द में आश्रम-सम्बन्धी कोई गन्ध नहीं प्राप्त होती। सम्भवतः आश्रम-सम्बन्धी संकेत सर्वप्रथम ऐतरेय ब्राह्मण (३३।११) में मिलता है, “मल से क्या लाभ, मृगचर्म से, दाढ़ी एवं तप से क्या लाभ ? हे ब्राह्मण, पुत्र की इच्छा करो, वह विश्व है जिसकी बड़ी प्रशंसा होगी...।" इस श्लोक में प्रयुक्त 'अजिन' शब्द से, जिसका अर्थ 'मृगचर्म' है, ब्रह्मचर्य, 'श्मश्रूणि' से वानप्रस्थ (गौतम ३॥३३ एवं मनु ६।६ के अनुसार वानप्रस्थ को दाढ़ी, बाल, नाखून रखने चाहिए) की ओर संकेत है। अतः 'मल' एवं 'तप' को गृहस्थ एवं संन्यासी का सूचक मानना चाहिए। छान्दोग्यउपनिषद् (२।२३।१) में स्पष्ट संकेत है कि धर्म के तीन विभाग हैं, जिनमें प्रथम यज्ञ, अध्ययन एवं दान में पाया जाता है (अर्थात् गृहस्थाश्रम), दूसरा तप (अर्थात् वानप्रस्थ) में और तीसरा ब्रह्मचारी में....।' 'तप' तो वानप्रस्थ एवं परिव्राजक दोनों का लक्षण है। अतः उपर्युक्त वाक्य में तीन आश्रमों, अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ एवं वानप्रस्थ की चर्चा है। सम्भवतः छान्दोग्योपनिषद् के काल तक वानप्रस्थ एवं संन्यास में कोई अन्तर नहीं था। बृहदारण्यकोपनिषद् (४।५।२) में आया है कि याज्ञवल्क्य ने अपनी स्त्री मैत्रेयी से कहा कि अब वे गृहस्थ से प्रव्रज्या धारण करने जा रहे हैं। मुण्डकोपनिषद् (१।२।११) में ब्रह्मज्ञानियों के लिए भिक्षाटन की बात चलायी गयी है। इस उपनिषद् (३६) ने संन्यास का नाम लिया है। जाबालोपनिषद् (४) में आया है कि जनक ने याज्ञवल्क्य से संन्यास की व्याख्या करने को कहा।
१. मुनयो वातरशनाः पिशङ्गा वसते मलाः। ऋग्वेद १०११३६२।
२. किं नु मलं किमजिनं किमुश्मभूणि कितपः। पुत्रं ब्रह्माण इच्छध्वं सर्व लोको वदावः॥ यहाँ 'मल' से सम्भवतः संभोग की ओर संकेत है, 'तप से वानप्रस्थ का तात्पर्य निकाला जा सकता है, (गौतम ३३३५, वैज्ञानसो बने मूलफलाशी तपशील:), या इससे संन्यासी का संकेत समझा जा सकता है (मनु ६७५ के अनुसार संन्यासी को कठिन तपस्या करनी पड़ती है)।
३. प्रयो धर्मस्कन्या यशोऽध्ययनं वानमिति प्रथमस्तप एवं द्वितीयो ब्रह्मचार्याचार्यकुलवासी तृतीयोऽत्यन्तमास्मानमाचार्यकुलेऽवसादयन्स एते पुथलोका भवन्ति ब्रह्मसंस्मोऽमृतत्वमेति । छान्दोग्य० ॥२१॥
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