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अध्याय ९
विवाह
विवाह संस्कार को सर्वोत्कृष्ट महत्ता प्रदान की गयी है। विवाह सम्बन्धी बहुत-से शब्द विवाह संस्कार के तत्वों की ओर संकेत करते हैं, यथा उद्वाह (कन्या को उसके पितृ-गृह से उच्चता के साथ ले जाना), विवाह (विशिष्ट ढंग से कन्या को ले जाना या अपनी स्त्री बनाने को ले जाना), परिणय या परिणयन (अग्नि की प्रदक्षिणा करना ), उपयम (सन्निकट ले जाना और अपना बना लेना) एवं पाणिग्रहण (कन्या का हाथ पकड़ना) । यद्यपि ये शब्द विवाहसंस्कार का केवल एक-एक तत्व बताते हैं, किन्तु शास्त्रों ने इन सबका प्रयोग किया है और विवाह संस्कार के उत्सव के कतिपय कर्मों को इनमें समेट लिया है। तैत्तिरीय संहिता ( ७/२/८७ ) एवं ऐतरेय ब्राह्मण (२७1५) में 'विवाह' शब्द उल्लिखित है। ताण्ड्य महाब्राह्मण ( ७।१०।१ ) में आया है - " स्वर्ग एवं पृथिवी में पहले एकता थी, किन्तु वे पृथक्-पृथक् हो गये, तब उन्होंने कहा - " आओ हम लोग विवाह कर लें, हम लोगों में सहयोग उत्पन्न हो जाय।""
क्या विवाह संस्कार की स्थापना के पूर्व भारतवर्ष में स्त्री-पुरुष सम्बन्ध में असंयम या अविविक्तता थी ? वैदिक ग्रन्थों में इस विषय में कोई संकेत नहीं प्राप्त होता । महाभारत ( आदिपर्व १२२१४, ७) में पाण्डु ने कुन्ती से कहा है कि प्राचीन काल में स्त्रियाँ संयम के बाहर थीं, जिस प्रकार चाहतीं मिथुन जीवन व्यतीत करती थीं, एक पुरुष को छोड़कर अन्य को ग्रहण करती थीं। यह स्थिति पाण्डु के काल में उत्तर कुरु देश में विद्यमान थी । उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम इस प्रकार के असंयमित जीवन के विरोध में स्वर ऊँचा किया और नियम बनाया कि यदि स्त्री पुरुष के प्रति या पुरुष स्त्री के प्रति असत्य होगा तो वह भयंकर अपराध या पाप का अपराधी होगा। इस विषय में सभापर्व ( ३१।३७-३८) भी देखा जा सकता है। महाभारत वाली कथा केवल कल्पना प्रसूत है। कुछ दिन पहले समाजशास्त्रियों ने स्त्री-पुरुष के प्रारम्भिक असंयमपूर्ण यौनिक जीवन की कल्पना कर ली थी, किन्तु अब यह धारणा उतनी मान्य नहीं है ।
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ऋग्वेद के मतानुसार विवाह का उद्देश्य था गृहस्थ होकर देवों के लिए यज्ञ करना तथा सन्तानोत्पत्ति करना (ऋग्वेद १०८५/३६, ५/३/२, ५/२८/३, ३५३१४) । पश्चात्कालीन साहित्य में भी यही बात पायी जाती है। स्त्री को 'जाया' कहा गया है, क्योंकि पति ने पत्नी के गर्भ से पुत्र के रूप में ही जन्म लिया ( ऐतरेय ब्राह्मण ३३ । १ ) | शतपथब्राह्मण (५।२।१।१०) का कहना है कि पत्नी पति की आधी (अर्धागिनी) है, अत: जब तक व्यक्ति विवाह नहीं करता, जब तक सन्तानोत्पत्ति नहीं करता, तब तक वह पूर्ण नहीं है।" जब आपस्तम्बघमंसूत्र ( २/५/११/१२ ) प्रथम
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१. इमौ वे लोको सहास्तां तौ वियन्तावभूतां विवाहं विवहावहै सह नावस्त्विति । ताण्ड्य० ७।१०।१ । २. देखिए, श्रीमती एम० कोल कृत पुस्तक, - मैरेज, पास्ट एंड प्रेजेंट" पृ० १० । ३. अर्धी ह वा एष आत्मनो यज्जाया तस्माद्यावज्जायां न विन्दते नैव तावत्प्रजायते असर्वो हि तावद् भवति । अथ यवंद जायां विन्दतेऽय तह हि सर्वो भवति । शतपथ ब्राह्मण ५|२|१|१०| और देखिए शतपथ ब्राह्मण
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