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समावर्तन और स्नातक
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९) द्वारा वर्णित विधि की चर्चा करेंगे। गुरुगेह से लौटते समय ब्रह्मचारी को ११ वस्तुएं जुटा रानी चाहिए, यथागले में लटकाने के लिए एक रत्न, कानों के लिए दो कुण्डल, एक जोड़ा परिधान, एक छाता, एक जोड़ा जूता, एक सोता ( लाठी), एक माला, शरीर पर लगाने के लिए चूर्ण (पाउडर), उबटन, अंजन, पगड़ी। ये सारी वस्तुएं गुरु एवं अपने लिए (ब्रह्मचारी के लिए ) एकत्र की जाती हैं। यदि दोनों के लिए ये वस्तुएँ एकत्र न की जा सके, तो केवल गुरु के लिए इनका संग्रह कर लेना चाहिए। उसे किसी यज्ञ योग्य पेड़ ( यथा पलाश) की उत्तर-पूर्वी दिशा से ईधन (समिया ) प्राप्त करना चाहिए । यदि व्यक्ति भोजन, धन, वैभव का प्रेमी हो तो ईंधन शुष्क नहीं होना चाहिए, किन्तु यदि व्यक्ति आध्यात्मिक वैभव का अनुरागी हो तो उसे शुष्क ईघन रखना चाहिए। किन्तु दोनों गुणों के प्रेमी को कुछ पाग शुष्क तथा कुछ भाग अशुष्क रखना चाहिए। ईंधन को कुछ ऊँचाई पर रखकर, ब्राह्मणों को भोजन एवं एक गाय का दान करके व्यक्ति को गोदान संस्कार की पूरी विधि सम्पादित करनी चाहिए। कुछ गरम जल में स्नान करके तथा सर्वना नवीन दो परिधान धारण करके मन्त्रोच्चारण करना चाहिए (ऋग्वेद १।१५२।१) । आँखों में अंजन लगाना चाहिए, कानों में कुण्डल पहनने चाहिए, हाथों में उबटन लगाना चाहिए। ब्राह्मण को सर्वप्रथम मुख, तन अन्य अंगों में उन लगाना चाहिए, क्षत्रिय को अपने दोनों हाथों में उबटन लगाना चहिए, वैश्य को अपने पेट पर, नारी को अपने कटि - भाग पर तथा दौड़कर जीविका चलाने वाले को अपनी जाँघों में उबटन लगाना चाहिए। तब माला ( सक्) धारण करनी चाहिए। इसके उपरान्त जूता पहनना चाहिए। तब क्रम से छाता, बाँस का डंडा (सोटा या लाठी), ब रत्न, सिर पर पगड़ी धारण करके खड़े हो अग्मि में समिधा डालनी चाहिए और मन्त्रोच्चारण करना चाहिए ( १०।१२८।१) ।
Satara परिभाषा ( १।१४। १ ) के अनुसार व्रतस्नातक के लिए समावर्तन किया बिना वैदिक के की जाती है । अन्य गृह्यसूत्रों में भी यही विधि पायी जाती है। किन्तु मन्त्रों में अन्तर है, हम यहाँ पर विरोधों एवं अन् का विवेचन उपस्थित नहीं करेंगे ।
समावर्तन संस्कार करने की तिथि के विषय में भी प्रभूत मतभेद रहा है। मध्यकालीन एवं आधुनिक लेखकों तिथि सम्बन्धी बहुत लम्बा विवेचन उपस्थित कर रखा है। इस विषय में देखिए संस्कारप्रकाश (पु० ५७६-५७८) । स्नातकों के लिए स्मृतियों एवं निबन्धों में बहुत से नियम पाये जाते हैं (स्नातकर्माः) । इनमें कुछ तो ज्योंत्यों गृहस्थों के लिए भी हैं । हम इनके विस्तार में नहीं पड़ेंगे। कुछ धर्म ये हैं- रात्रि में स्वग्न न करता, नंगे स्नान न करना, नंगे न सोना, नंगी नारी को न देखना, वर्षा में न दौड़ना, पेड़ पर न चढ़ना, कुए में न उतरता यय से न पहना आदि (आश्वलायनगृह्य० २/९/६-७ ) । बहुत से व्रत भी हैं, यथा अनध्याय के नियम, मलमूत्र त्याग, भक्ष्याभक् संभोग, आचमन. महायज्ञ, उपाकर्म एवं उत्सर्ग के नियमों का पालन आदि । पवित्रता के लिए प्रति दिन, चन्दनलेप, धैर्य धारण, आत्म-संयम, उदारता आदि में सतर्क एवं प्रवीण होना चाहिए। इसी प्रकार आवरण साहसी गोष नियम हैं, जिनका विस्तार स्थान-संकोच से छोड़ा जा रहा है !
मनु (११।२०३) ने आचरण-नियम के विरोध में जाने पर एक दिन के उपवास का
है।
हरदत्त ने गौतम (९।२) की टीका में बतलाया है कि ये नियम केवल ब्राह्मण एवं क्षत्रिय स्नानों से लिए हैं। आधुनिक काल में समावर्तन की क्रिया उपनयन के थोड़े समय के उपरान्त, या कमी-कभी दिन कर दी जाती है। आजकल अधिकांश ब्राह्मण वेदाध्ययन नहीं करते, तर मानेकी दिखावटी रह गयी है।
दूसरे
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