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पुनः संस्कार २५७ शूद्र पवित्र हो सकता है। देवल के १७ से २२ तक श्लोक बड़े महत्व के हैं- “जब लोग म्लेच्छों, चाण्डालों एवं दस्युओं ! डाकुओं ) द्वारा बलवश दास बना लिये जायँ और उनसे गन्दे काम कराये जायें, यथा गो-हत्या तथा अन्य पशु- हनन, म्लेच्छों द्वारा छोड़े हुए जूठे को स्वच्छ करना, उनका जूठा खाना, गदहा-ऊँट एवं ग्रामशूकर का मांस खाना, म्लेच्छों की स्त्रियों से सम्भोग करना, या उन स्त्रियों के साथ भोजन करना आदि, तब एक मास तक इस दशा में रहनेवाले द्विजाति के लिए प्रायश्चित्त केवल प्राजापत्य है; वैदिक अग्नि में हवन करनेवालों के लिए (यदि वे एक मास या कुछ कम तक इस प्रकार रहें तो ) चान्द्रायण या पराक; एक वर्ष रह जानेवाले के लिए चान्द्रायण एवं पराक दोनों; एक मास तक रह जानेवाले शूद्र के लिए कृच्छ्रपाद, एक वर्ष तक रह जानेवाले शूद्र के लिए यावक-पान ( का विधान है ) । यदि उपर्युक्त स्थितियों में म्लेच्छों के साथ एक वर्ष का वास हो जाय तो विद्वान् ब्राह्मण ही निर्णय दे सकते हैं। चार वर्ष तक उसी प्रकार रह जाने के लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं है।"" प्रायश्चित्तविवेक ( पृ० ४५६ ) के अनुसार चार वर्ष बीत जाने पर मृत्यु ही पवित्र कर सकती है। देवल के तीन श्लोक (५३-५५) अवलोकनीय हैं-"जो व्यक्ति म्लेच्छों द्वारा पाँच, छः या सात वर्षों तक पकड़ा रह गया हो या दस से बारह वर्ष तक उनके साथ रह गया हो, वह दो प्राजापत्यों द्वारा शुद्ध किया जा सकता है। इसके आगे कोई प्रायश्चित्त नहीं है। ये प्रायश्चित्त केवल म्लेच्छों के साथ रहने के कारण ही किये जाते हैं। जो पाँच से बीस वर्ष तक साथ रह गया हो उसे दो चान्द्रायणों से शुद्धि मिल सकती है ।" ये तीन श्लोक ऊपर के १७ से २२ वाले श्लोकों से मेल नहीं खाते। किन्तु पाठकों को अनुमान से सोच लेना होगा कि दूसरी बात उन लोगों के लिए कही गयी है, जो केवल म्लेच्छों के साथ रहते थे, किन्तु वर्जित व्यवहार, आचार-विचार, खान-पान में म्लेच्छों से अलग रहते थे । इस विषय में देखिए पञ्चदशी (तृप्तिदीप, २३९ ) - 'जिस प्रकार म्लेच्छों द्वारा पकड़ा गया ब्राह्मण प्रायश्चित्त करने के उपरान्त म्लेच्छ नहीं रह जाता, उसी प्रकार बुद्धियुक्त आत्मा भौतिक पदार्थों एवं शरीर द्वारा अपवित्र नहीं होता। इससे प्रकट होता है कि शंकराचार्य के उपरान्त अति महिमा वाले आचार्य विद्यारण्य की दृष्टि में म्लेच्छों द्वारा वन्दी किया गया ब्राह्मण अपनी पूर्व स्थिति में लाया जा सकता है।
शिवाजी तथा पेशवाओं के काल में बहुत-से हिन्दू जो बलपूर्वक मुसलमान बनाये गये थे, प्रायश्चित्त कराकर पुनः हिन्दू जाति में ले लिये गये। किन्तु ऐसा बहुत कम होता रहा है ।
आधुनिक काल में हिन्दुओं में शुद्धि एवं पतितपरावर्तन के आन्दोलन चले, और 'आर्यसमाज' को इस विषय में पर्याप्त सफलता भी मिली, किन्तु अधिकांश कट्टर हिन्दू इस आन्दोलन के पक्ष में नहीं रहे । इतर धर्मावलम्बियों में से बहुत थोड़े ही हिन्दू धर्म में दीक्षित हो सके। इस प्रकार की दीक्षा के लिए व्रात्यस्तोम तथा अन्य क्रियाएँ आवश्यक
८१. बलाद्दासीकृता ये च म्लेच्छचाण्डालवस्युभिः । अशुभं कारिताः कर्म गवादिप्राणिहिंसनम् ॥ उच्छिष्टमार्जनं चैव तथा तस्यैव भोजनम् । खरोष्ट्रविवराहाणामामिषस्य च भक्षणम् ॥ तत्स्त्रीणां च तथा संगं ताभिश्च सहभोजनम् । मासोषिते द्विजातौ तु प्राजापत्यं विशोधनम् ॥ चान्द्रायणं त्वाहिताग्नेः पराकस्त्वथवा भवेत् । चान्द्रायणं पराकं च चरेत्संवत्सरोषितः ॥ संवत्सरोषितः शूद्रो मासार्थं यावकं पिबेत् । मासमात्रोषितः शूद्रः कृच्छ्रपादेन शुध्यति ॥ ऊष्यं संवत्सरात्कल्प्यं प्रायश्चित्तं द्विजोत्तमः । संवत्सरंश्चतुभिश्च तद्द्भावमधिगच्छति । देवल १७-२२ । याज्ञवल्क्य (३२९०) की व्याख्या में मिताक्षरा ने तथा अपरार्क ने इन छः श्लोकों को उद्धृत किया है और कहा है कि ये आपस्तम्ब के हैं। शूलपाणि के प्रायश्चित्तविवेक में ये श्लोक देवल के कहे गये हैं।
८२. गृहीतो ब्राह्मणो म्लेच्छः प्रायश्चित्तं चरन्पुनः । म्लेच्छः संकीर्यते नैव तथाभासः शरीरकैः ॥ पंचदशी (तृप्तिदीप, २३५) ।
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