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धर्मशास्त्र का इतिहास
हमें कोई विधान नहीं मिलता। हिन्दू धर्म अति उदार एवं सहिष्णु रहा है, इसमें शान्तिपूर्ण एवं बेरोक-टोक ढंग से घुलना-मिलना होता रहा है। यदि कोई इतर जाति का विदेशी भारत में रहकर अपने बाह्य व्यवहार द्वारा भारतीय समाज के नियमों को मानता जाता था, तो कालान्तर में उसके वंशज वैसा ही करने पर क्रमश: हिन्दू समाज में आत्मसात् हो जाते थे। यह क्रिया एवं गति लगभग २००० वर्षों तक चलती रही है। ऐसी बातों की प्रारम्भिक गाथाएँ महाभारत में भी मिल जाती हैं। इन्द्र ने सम्राट मान्धाता से सभी यवनों को ब्राह्मणवाद के प्रभाव में लाने को कहा है (शान्तिपर्व, अध्याय ६५)। बेसनगर के स्तम्माभिलेख से पता चलता है कि योन (यवन) हेलियोदोर (हेलियोडोरस), जो दिय (डियॉन) का पुत्र था, भागवत (वासुदेव का भक्त) था (जे० आर० ए० एस० १९०९, पृ० १०५३ एवं १०८७ एवं
बी० आर० ए०एस०.भाग २३.१०१०४)। नासिक. कार्ले एवं अन्य स्थानों कीगफाओं के निर्माता यवन थे (एपि० इण्डि०, भाग ७, पृ० ५३-५५; वही, भाग ८, पृ० ९०, वही भाग १८, पृ० ३२५) बहुत से अभिलेखों से पता चलता है कि भारतीय राजाओं ने हूण कुमारियों से विवाह किये, "था गुहिल वंश के अल्लट ने हूण कुमारी हरिय देवी (इण्डियन एण्टिक्वेरी, भाग ३९, पृ० १९१) से। कलचुरि वंश का राजा यशःकर्णदेव कर्णदेव एवं हूणकुमारी अवल्लदेवी की सन्तान था। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि कालान्तर में यहाँ विदेशियों की खपत होती चली गयी। अनार्य लोग क्रमश: आर्य होते चले गये।
स्मृतियों ने बलपूर्वक अन्य धर्म में ले लिये गये हिन्दुओं के स्वजाति में पुनः प्रवेश की समस्या पर विचार किया है। सिन्ध की दिशा से मुसलमानों ने आठवीं शताब्दी में भारत पर आक्रमण करके बहुत-से हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बना लिया। देवल तथा अन्य स्मृतिकारों ने इन लोगों को पुनः हिन्दू समाज में ले लेने की बात चलायी। सिन्धु-तीर पर बैठे हुए देवल से ऋषि लोग पूछते हैं-"उन ब्राह्मणों एवं अन्य लोगों को, जिन्हें म्लेच्छों (मुसलमानों) ने बलवश अपने धर्म में खींच लिया है, हम किस प्रकार शुद्ध करें एवं जाति में पुनः लायें ?" देवल ने विधान बनाया। चान्द्रायण एवं पराक व्रत से ब्राह्मण, पराक एवं पादकृच्छ से क्षत्रिय, पराक के आधे से वैश्य एवं पांच दिनों के पराक से
८०. प्राचीन भारत में राजाओं की धार्मिक सहिष्णुता अपने ढंग की रही है। पालवंश के राजा महीपाल प्रथम ने भगवान् बुद्ध के सम्मान में वाजसनेयीशाखा के एक ब्राह्मण को एक ग्राम दान में दिया था (एपिनफिका इण्डिका, भाग १४,पृ० ३२४) परमसौगत (बुद्ध भगवान् के भक्त) शुभकर्ण देव ने २०० ब्राह्मणों को दो सौ ग्राम दान में दिये (नेयुलर अवदान, एपिनेफिया इण्डिया, भाग १५, पृ० १); और देखिए एपि० इण्डि० भाग १५, पृ० २९३। प्रसिद्ध सम्राट हर्ष, जिसका पिता सूर्य का भक्त और जो स्वयं शिव का भक्त था, अपने पम रसौगत भाई राज्यवर्धन के प्रति असीम आवर प्रकट करता है (देखिए मधुवन ताम्रपत्र अभिलेख; इपि० इण्डि० भाग १, पृ० ६७ एवं वही, भाग ७, पृ० १५५) । उषवदात ने ब्राह्मणों एवं बौद्धों के संघों को दान दिये थे (नासिक अभिलेख नं० १० एवं १२, एपि० इ०, भाग ८, पृ० ७८ एवं ८२)। वलभीराज गुहसेन ने, जो माहेश्वर (शिवभक्त) था, एक मिन-संघ को चार प्राम दान दिये थे। गुप्त संवत् १५९ (४७८-७९ ई.) के पहाड़पुर पत्र से पता चलता है कि एक बिहार के अर्हतों की पूजा के प्रबन्ध के लिए एक ब्राह्मण एवं उसकी पत्नी ने नगर-निगम में तीन दीनार जमा किये थे (एपि० इडि०, भाग २०, पृ०५९)। राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय (९०२-३ ई०) के समय के मूलगुण्ड अभिलेख से पता चलता है कि बल्लाल कुल के एक ब्राह्मण ने जिन के एक मन्दिर के लिए एक खेत दान में दिया था (एपि० इमि०, भाग १३, पृ० १९०) । सन् १३६८ ई० में विजयनगर के राजा ने जैनों एवं श्रीवैष्णवों के झगड़े को तय किया था (देखिए मैसूर एप कुर्ग काम इंस्क्रिप्शन्स, पृ० ११३ एवं २०७)।
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