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वेदाध्ययन
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उपनयन करनेवाले एवं वेदाध्ययन करानेवाले आचार्य की गुण-विशिष्टता के बारे में बहुत कुछ कहा गया है। आपस्तम्बधर्मसूत्र ( १|१|१|११ ) में आया है कि जो अविद्वान् से उपनयन करता है, वह अन्धकार से अन्धकार में ही जाता है और अविद्वान् आचार्य भी अन्धकार में ही प्रवेश करता है । उसी धर्मसूत्र (१।१।१।१२-१३ ) में पुन: लिखा है कि वंशपरम्परा से विद्यासम्पन्न एवं गम्भीर व्यक्ति से ही उपनयन संस्कार एवं वेदाध्यपान कराना चाहिए और जब तक वह धर्ममार्ग से च्युत नहीं होता तब तक उससे पढ़ते जाना चाहिए। आचार्य को ब्राह्मण, वेद में एकनिष्ठ, धर्मज्ञ, कुलीन, शुचि, श्रोत्रिय होना चाहिए, अपनी शाखा में प्रवीण एवं अप्रमादी होना चाहिए। आपस्तम्बधर्मसूत्र ( २/३/६ ) एवं बोधायनगृह्य (१।७।३) ने उसी को श्रोत्रिय कहा है जिसने वेद की एक शाखा पढ़ ली हो ( देखिए वायुपुराण, भाग १,५९।२९) । आपत्काल में अर्थात् जब ब्राह्मण न मिले तब क्षत्रिय या वैश्य को आचार्य बनाना चाहिए, किन्तु विद्यार्थी ऐसे गुरु के चरण नहीं पखार सकता, और न उसकी देह मल सकता है (आप० ० सू० २/२/४/२५२८; गौतम ० ७।१-३; बौ० घ० सू० ११२/४०-४२ एवं मनु २।२४१ ) । मनु ( २।२३८) ने शुभा विद्या ( प्रत्यक्ष लाभकारी ज्ञान) के लिए ब्राह्मण को शूद्र से भी सीखने के लिए छूट दी है। यही बात शान्तिपर्व ( १६५/३१ ) में भी है । मिताक्षरा (याज्ञ० १।११८) ने कहा है कि ब्राह्मण द्वारा प्रेरित किये जाने पर ही क्षत्रिय या वैश्य को शिक्षणकार्य करना चाहिए, अपने मन से नहीं । क्षत्रिय शिक्षण कार्य से अपनी जीविका नहीं चला सकता। "
शिक्षण कार्य मौखिक था । सर्वप्रथम प्रणव, व्याहृतियाँ एवं गायत्री ही पढ़ायी जाती थी । इसके उपरान्त बच्चे को वेद के अन्य भाग पढ़ाये जाते थे। प्राचीन भारतीय वेदाध्ययन की प्रणाली पर संक्षिप्त विवेचन यहाँ आवश्यक प्रतीत होता है। शांखायनगृह्यसूत्र ( ४१८) ने वर्णन किया है--'गुरु पूर्व या उत्तर मुख बैठता है, शिष्य उसके दाहिने उत्तराभिमुख बैठता है, यदि दो से अधिक शिष्य हों तो स्थान के अनुसार जैसा चाहें बैठ सकते हैं। शिष्य को उच्चासन पर नहीं बैठना चाहिए और न गुरु के साथ उसी आसन पर बैठना चाहिए; उसे अपने पैर नहीं फैलाने चाहिए, अपनी बाहु से घुटनों को पकड़कर भी नहीं बैठना चाहिए। किसी वस्तु का सहारा भी नहीं लेना चाहिए; उसे अपने पाँवों को गोदी में नहीं रखना चाहिए और न उन्हें कुल्हाड़ी की भाँति पकड़ना चाहिए। जब शिष्य " उच्चारण कीजिए, महोदय' कहता है, तब आचार्य उससे 'ओम्' कहलवाता है और शिष्य को 'ओम्' कहना चाहिए। इसके उपरान्त शिष्य लगातार पढ़ना आरम्भ कर देता है। पढ़ने के उपरान्त शिष्य को गुरु के पाँव - छूने चाहिए और कहना चाहिए, “महोदय, अब हमने समाप्त कर लिया", यह कहकर चला जाना चाहिए; किन्तु
हैं, मनु २२३०, २३३ एवं २३४ विष्णुधर्मसूत्र के ३१।७, ९ एवं १० समान हैं। गुरूणामपि सर्वेषां पूज्याः पञ्च विशेषतः । यो भावयति या सूते येन विद्योपदिश्यते ॥ ज्येष्ठो भ्राता च भर्ता च पञ्चते गुरवः स्मृताः । तेषामाचस्त्रियः श्रेष्ठास्तेषां माता सुपूजिता । देवल (स्मृतिचन्त्रिका, भाग १, पृ० ३५ में उद्धृत); वनपर्व (२१।४।२८-२९) में पांच गुरुओं के नाम हैं जो कुछ भिन्न हैं, यथा--पिता, माता, अग्नि, आत्मा एवं गुरु ।
५६. धर्मेण वेदानामेकंकां शाखामधीत्य श्रोत्रियो भवति । आप० घ० सू० २२३|६|४; एक शाशामपीत्व भोत्रियः । बौ० गृ० १।७।३; वृद्धा ह्यलोलुपाश्चैव आत्भवन्तो ह्यवम्भकाः सम्यग्विनीता ऋजवस्थानाचार्यान् प्रचक्षते ॥ वायुपुराण भाग १,५९।२९ ।
५७. श्रद्दधानः शुभां विद्यां हीनादपि समाप्नुयात् । सुवर्णमपि चामेध्यादाददीत । विचारयन् ॥ शान्तिपर्व १६।५।३१। अध्यापनं तु क्षत्रियवैश्ययोर्ब्राह्मणप्रेरितयोर्भवति न स्वेच्छया । मिता० (याज्ञ० १।११८ ) ; तदध्यापनमात्रकर्तृ श्वमाह्मणस्याभ्यनुजानाति न तु वृत्तित्वमपि । अपरार्क पू० १६० ।
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