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अनिवाल मौर ममत्कार
गुरु, गुरुपुत्र, नुरुपत्नी, दीक्षित, अन्य गुरु, पिता, माता, चाचा. मामा, हितेच्छु, विद्वान्, श्वशुर, पति, मौसी के नाम नहीं लेने चाहिए।" महाभारत (शान्तिपर्व १९३३२५.) के अनुसार किसी को अपने गुरुजन का नाम नहीं लेना चाहिए, या उन्हें 'तुम' शब्द से नहीं पुकारना चाहिए, अपने समकालीनों या छोटों के नाम लिये जा सकते हैं। एक श्लोक से यह मी पता चलता है कि अपना नाम, अपने गुरु का नाम, दुष्ट प्रकृतिवाले व्यक्ति का नाम, अपनी पली का नाम अपवा अपने ज्येष्ठ पुत्र का नाम भी नहीं लेना चाहिए।"
उपसंपहन में अपना नाम एवं गोत्र "मैं प्रणाम करता हूँ" कहकर बोला जाता है। उस समय अपने कानों को छूकर प्रणम्य के पैरों को छू लिया जाता है एवं सिर को झुका लिया जाता है। किन्तु अभिवादन में हाथों से पैरों का पकड़ना मा छूना नहीं होता। अभिवादन के पूर्व प्रत्युत्थान होता है।
किसी के स्वागत में अपने आसन को छोड़कर उठने को प्रत्युत्थान कहा जाता है। किसी को प्रणाम करना अमिवाल कहा जाता है। उपसंग्रहन में हाथों से पैरों को पकड़ लिया जाता है। प्रत्यनिवार में प्रणाम का उत्तर दिया जाता है। नमस्कार में नमः के साथ सिर झुकाना होता है। इन सबके विषय में बड़े विस्तार के साथ नियम बताये गये हैं। इस विषय में आपस्तम्बधर्मसूत्र (१२२।५।१९-२२), मनु (२१७१-७२), गौतम (११५२-५४), विष्णुधर्मसूत्र (२८।१५), बौधायनधर्मसूत्र (१।२।२४,२८), मौतम (६११-६) आदि देखने चाहिए, जिनमें पर्याप्त मत-मतान्तर मिलते हैं। किसी के मत में जब गुरु मिलें, सब पैर पकड़ लेने चाहिए, किसी के मत से केवल प्रातः एवं सायं ऐसा करना चाहिए। गुरुजनों, माता-पिता तथा अन्य श्रद्धास्पदों के विषय में भी ऐसे ही विभिन्न मत हैं, जिन्हें यहाँ उद्धृत करना बावश्यक नहीं है।
अग्विाल तीन प्रकार का होता है; नित्य (प्रति दिन के लिए आवश्यक), नैमित्तिक (विशिष्ट अवसरों पर ही करने योग्य) एवं कान्य (किसी विशिष्ट काम मा अभिकांक्षा से प्रेरित होने पर किया जानेवाला)। नित्य के विषय में आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।२।५।१२-१३) ने यों लिखा है-"प्रति दिन विद्यार्थी को रात्रि के अन्तिम प्रहर में उठना चाहिए और गुरु के सभिकट खड़े होकर यह कहना चाहिए कि 'यह मैं...प्रणाम करता हूँ', उसे अन्य गुरुजनों एवं विद्वान् ब्राह्मणों को प्रातः भोजन के पूर्व प्रणाम करना चाहिए" (देखिए याज्ञवल्क्य ११२६)। नैमित्तिक अभिवादन कची-कभी होता है, यथा किसी यात्रा के उपरान्त (आपस्तम्बधर्मसूत्र १०२।५।१४)। लम्बी आयु की आशा से, कल्याण के लिए कोई भी गुरुजनों को प्रणाम कर सकता है (आप० १० ११२।५।१५ एवं बौधायन० १२२२२६)। मनु (२। १२०-१२१)ने लिखा है कि जोज्येष्ठ एवं श्रद्धास्पदों को प्रणाम करता है वह दीर्ष आयु, शान एवं शक्ति प्राप्त करता है...। इस विषय में हम आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।४।१४।११), बौधायनधर्मसूत्र (१२।४४), मनु (३॥१३०)एवं वसिष्ठधर्मसूत्र (१३।४१) को देख सकते हैं। अभिवादन के विषय में कुछ मतभेद भी हैं, जिन्हें देना यहाँ आवश्यक नहीं है।
६३. आचार्य चैव तत्पुत्रं सदभार्या दीक्षितं गुरुम् । पितरंगा पितृव्यंष मातुर मातरं समाहितैषिणं च विद्यासं श्वशुरंपतिमेव च । नयानामतो विद्वान्मातुश्च भगिनी तपा॥ स्मृतिपत्रिका (भाग १,५०४५) एवं हरदत्त (गौतम २।२९)।
४. कारं नामवंबज्येष्ठानापरिवर्जयेत् । अवराणां समानानामभयेषां न दुष्यति ॥ शान्तिपर्व १९३।२४; देखिए विष्णुधर्मसूत्र (३२३८) भी; मात्मनाम गुरोनाम यशाम कृपणस्य च । भेयस्कामो नगरीयाणेळापत्यकलत्रयोः । किन्तु अभिवादन में अपना नाम लेना चाहिए। गुरोर्येष्ठकलत्रस्य भातुर्येष्ठस्य चात्मनः । आपुष्कामोन गृह गीमानामातिकपणत्या नारा (मवनसारिजात बारा उक्त, पृ० ११९)।
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