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धर्मशाल तिहास कि उसे साट या चौकी पर नहीं सोना चाहिए एवं पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहना चाहिए, स्वप्नदोष हो जाने पर उसे स्नान करना पहिए, सूर्य की पूजा करनी चाहिए तथा "पुनर्माम्०" (तैत्तिरीय आरण्यक १।३०) मन्त्र का तीन बार उच्चारण करना चाहिए। ऐसी बातें बापस्तम्बधर्मसूत्र (१११२।२१-३०, १११॥३॥११-२४) में भी पायी जाती हैं। आपस्तम्बपर्म (१११।२।२८.३०) का कहना है कि विद्यार्थी को साधारणतया गर्म जल से बंग नहीं धोने चाहिए, यदि मंग गन्दे एवं अपवित्र हों तो उन्हें गुरु से छिपाकर गर्म जल से धो लेना चाहिए; विद्यार्थी को क्रीमपूर्वक स्मान नहीं करना चाहिए, बल्कि पानी में रण्डे के समान गतिहीन स्नान करना चाहिए। आपस्तम्ब० (१११।२।२६) ने संभोग से दूर रहने को तो कहा ही है, यह भी कहा है कि स्त्रियों से तभी बात करे जब कि अत्यावश्यक हो । विद्यार्थी को हेसना नहीं चाहिए, यदि वह अपने को रोक न सके तो उसे मुख को हाथों से बन्द करके हंसना चाहिए।"
गौतम एवं पोषायनपर्मसूत्र (१२३४ एवं ३७) का कहना है कि शिष्य को गुरु के साथ जाना चाहिए, उसे स्मान करने में सहायता देनी चाहिए, उसके शरीर को दबाना चाहिए और उसका उच्छिष्ट खाना चाहिए, उसे गुरु को प्रसन्न करनेवाले कार्य करने चाहिए, गुरु के बुलाने पर पढ़ना चाहिए, उसे कपड़े के टुकड़े से अपना कण्ठ नहीं ढकना चाहिए, अपने पैरों को आगे कर गुरु के समाप नहीं बैठना चाहिए, अपने पांव नहीं फैलाने चाहिए, जोर से गला नहीं स्वच्छ करना चाहिए, जोर से हंसना, जमाई लेना, अंगुली चटकाना नहीं चाहिए, बुलाने पर तुरन्त आना चाहिए, भले ही बहुत दूर बैठा हो, गुरु से नीचे के आसन पर बैठना चाहिए, गुरु के सो जाने के उपरान्त सोना एवं उनके जगने के पहले जगना चाहिए (गौतम २१२०-२१, ३०-३२)। मनु (२।१९४-१९८) एवं आपस्तम्बधर्म सूत्र (१।२।५।२६ एवं १३ २।६।१-१२) में भी ऐसे ही नियम हैं। शिष्य को अपने गुरु की चाल-ढाल, वाणी एवं क्रियाओं की भही नकल नहीं करनी चाहिए, अर्थात् मजाक नहीं उड़ाना चाहिए (मनु २।१९९)। मनु (२।२००-२०१) ने यह भी लिखा है कि शिष्य को अपने गुरु के विरोध में कहे जाते हुए शब्द नहीं सुनने चाहिए, यदि वह स्वयं उनकी शिकायत करता है तो आगे के जन्म में गदहा या कुत्ता होगा। विष्णुधर्मसूत्र (२८१२६) ने भी यही बात कही है।
विद्यार्थियों के सिर के बालों के विषय में कई नियम बनाये गये हैं। ऋग्वेद (४१७५।१७; तै० सं० ४।५।४।५) ने कई शिखाओं वाले बच्चों के बारे में लिखा है। गौतम (११२६) एवं मनु (२१२१९) के अनुसार ब्रह्मचारी का सिर मुड़ा रहना चाहिए, या जटाबद्ध रहना चाहिए या शिखा बिना पूरा घुटा रहना चाहिए। आपस्तम्बधर्मसूत्र (१२१२२॥ ३१-३२), वसिष्ठधर्मसूत्र (७.११) एवं विष्णुधर्मसूत्र (२८१४१) में कुछ विभिन्नता के साथ ऐसी ही बातें पायी जाती है। जनमार्ग पर चलते समय शिखा नहीं खोलनी चाहिए (हारीत, अपरार्क द्वारा उद्धृत, पृ० २२५)।
विना श्री, मट्ट या आचार्य की उपाधि लगाये शिष्य अपने गुरु का नाम उनकी अनुपस्थिति में भी नहीं ले सकता था। गौतम के आदेशानुसार शिष्य अपने गुरु, मुरु-पत्नी, गुरुपुष या उस व्यक्ति का नाम जिसने श्रोत यज्ञ कराया हो, नहीं ले सकता (२।२४ एवं २८)। आपस्तम्बधर्म० (११८१५) का कहना है कि घर लौट आने पर भी स्नातक को गुरु का कंश अंगुली से नहीं छूना चाहिए, बार-बार कान में कुछ नहीं कहना चाहिए, सम्मुख नहीं हँसना चाहिए, जोर से पुकारना, नाम लेना या आदेश देना नहीं चाहिए। और मी देखिए मनु (२।१२८) एवं गौतम (६।१९) । स्मृतिपत्रिका (भाग १, पृ. ४५) एवं हरदत्त ने (गौतम २२९) एक स्मृति का उद्धरण देते हुए लिखा है कि अपने
१२. देखिए, याज्ञवल्लय (१॥३३) जिसमें उपर्युक्त बहुत-सी बातें प्रामाती है। पामवल्लय ने गुरु को छोड़कर किसी अन्य को उच्छिष्ट भोजन खाना मना किया है। मनु (२३१७७-१७१) ने गौतम के समान ही नियम किये हैं। मोशनसस्मृति में त्यागने योग्य बातों की एक बहुत लम्बी तालिका पायी जाती है।
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