________________
२४२
धर्मशास्त्र का इतिहास
जोदड़ो एवं हड़प्पा (सिंधु घाटी) की लिपि अति प्राचीन ठहरा दी गयी और यह सिद्ध हो गया कि भारत में लगभग ५०००-६००० वर्ष पूर्व किसी परिष्कृत लिपि का व्यवहार होता था ।
शिक्षा देने का मौलिक ढंग सर्वोच्च एवं सबसे सस्ता था। प्राचीन काल में लिखने की सामग्री सरलता से नहीं मिल सकती थी और जो प्राप्त थी वह बहुमूल्य थी, अतः मौखिक ढंग को ही विशेष महत्ता दी गयी। आज भी संस्कृत विद्यालयों में यही ढंग अपनाया जाता है। आधुनिक काल में जब कि लिखने एवं मुद्रण की सारी सुविधाएँ प्राप्त हैं, सैकड़ों ऐसे ब्राह्मण मिलेंगे जिन्हें न केवल सम्पूर्ण ऋग्वेद (लगभग १०,५८० मन्त्र ) कण्ठस्थ हैं, प्रत्युत ऋग्वेद के पद, ऐतरेय ब्राह्मण, आरण्यक एवं छ: वेदांग (जिनमें पाणिनि के ४००० सूत्र एवं यास्क का विशाल निरुक्त भी सम्मिलित हैं) सभी कण्ठस्थ हैं। इन ब्राह्मणों में कुछ तो ऐसे विभ्राट् जन मिलेंगे, जिन्हें इतना बड़ा साहित्य कण्ठ तो है, किन्तु वे इसके एक शब्द का अर्थ भी नहीं कह सकते।
१७२
पराशरमाघवीय (भाग १, पृ० १५४ ) में उद्धृत नारद के अनुसार "जो व्यक्ति पुस्तक के आधार पर ही अध्ययन करता है, गुरु से नहीं, वह सभा में शोभा नहीं पाता ।...' 'वृद्धगौतम ने उनकी भर्त्सना की है जो वेद बेंचते हैं, जो वेद की भर्त्सना करते हैं तथा उसे लिखते हैं । याज्ञवल्क्य ( ३ । २६७-६८) पर लिखते समय अपरार्क ( पृ० १११४ ) ने चतुर्विंशतिमत को उद्धृत करते हुए वेद, वेदांग, स्मृतियों, इतिहास, पुराण, पञ्चरात्र, गाथा, नीतिशास्त्र विक्रय करनेवालों के लिए विभिन्न प्रकार के प्रायश्चित्तों की व्यवस्था दी है। पुस्तक - प्रयोग के विरुद्ध यहाँ तक कहा गया है। कि ज्ञानप्राप्ति के मार्ग में यह छः अवरोधों में एक अवरोध है। "
गुरु संस्कृत, प्राकृत या देशभाषा के द्वारा शिष्यों को समझाया करता था (संस्कृतैः प्राकृतैर्वाक्यैर्यः शिष्यमनुरूपतः । देशमाषाद्युपायैश्च बोधयेत्स गुरुः स्मृतः । वीरमित्रोदय द्वारा उद्धृत विष्णुधर्म० में ) ।
ब्रह्मचर्य की अवधि
उपनिषदों के कुछ अंशों से पता चलता है कि ब्रह्मचयं ( विद्यार्थी जीवन ) की अवधि १२ वर्ष की थी ( छान्दोग्य ० ४।१०।१) । श्वेतकेतु आरुणेय १२ वर्ष की अवस्था में ब्रह्मचारी हुए और २४ वर्ष की अवस्था में सभी वेदों के पण्डित हो गये ( छान्दोग्य० ६।१।२) । छान्दोग्य० (४।१०।१ ) से यह भी प्रकट होता है कि १२ वर्ष के उपरान्त बहुधा शिष्य लोग के यहाँ से चले आते थे। किन्तु ब्रह्मचर्य लम्बी अवधि का भी हो सकता था । छान्दोग्य० (८।११।३ ) में लिखा है कि इन्द्र प्रजापति के यहाँ १०१ वर्ष तक ( ३२ वर्ष की तीन अवधियाँ + ५ वर्ष) विद्यार्थी रूप में रहे । भरद्वाज ने ७५ वर्ष तक वेदों का अध्ययन किया ( तैत्तिरीय ब्राह्मण ३।१०।११) । गोपथ ब्राह्मण ( २१५ ) के अनुसार सभी देवों के अध्ययन की अवधि ४८ वर्ष थी । गोपथब्राह्मण के इस कथन को कुछ गृह्य एवं धर्म सूत्रों ने उद्धृत किया है,
७१. ऋग्वेद का पद-पाठ शाकल्य की कृति है तथा वह पाठ पौरुषेय (मानव द्वारा प्रणीत) है। निरुक्त (६।२८) नेपद-भाग के विभाजन की आलोचना की है। विश्वरूप ( याज्ञ० ३।२४२ ) ने कहा है कि पद एवं क्रम के प्रणेता मानव हैं।
७२. पुस्तकप्रत्ययाधीतं नाधीतं गुरुसंनिधौ । भ्राजते न सभामध्ये जारगर्भ इव स्त्रियाः ॥ नारद (पराशरमाrate, भाग १ पृ० १५४) ।
७३. द्यूतं पुस्तकशुश्रूषा नाटकासक्तिरेव च । स्त्रियस्तन्द्री च निद्रा च विद्याविघ्नकराणि षट् ॥ स्मृतिचन्द्रिका (भाग १, पृ० ५२) द्वारा उद्धृत नारद ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org