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धर्मशास्त्र का इतिहास अभिवादन विषियों थी—बाह्मण को अपनी दाहिनी बाहु कान के सीध में फैलाकर, क्षत्रिय को छाती तक, वैश्य को कमर तक तथा शूद्र को पैर तक फैलाकर अभिवादन करना चाहिए और दोनों हाथ जुड़े होने चाहिए (आप० ५० १।२।५।१६-१७)।५
यदि कोई ब्राह्मण प्रणाम या अभिवादन का उत्तर न दे सके तो उसे शूद्र के समान समझना चाहिए, विद्वान् को चाहिए कि वह उसे प्रणाम न करे। ब्राह्मणों के लिए यह नियम था कि वे क्षत्रियों एवं वैश्यों को अभिवादन न करें। भले ही वे लोग विद्वान् एवं श्रद्धास्पद हों, केवल 'स्वस्ति' का उच्चारण पर्याप्त है। बराबर-जाति वालों में ही अभिवादन होता है। ऐसा न करने पर अर्थात् यदि ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र को अभिवादन करें, तो उन्हें प्रायश्चित्त करना पड़ता था (क्रम से १, २ या ३ दिनों का उपवास)। जूता पहने, सिर बाँधे (पगड़ी आदि से), दोनों हाथ फंसे रहने पर, सिर पर समिधा रखे रहने पर, हाथ में पुष्प-पात्र या भोजन लिये रहने पर अभिवादन नहीं करना चाहिए,
और न पितरों का श्राद्ध करते समय, अग्नि या देवता की पूजा करते समय तथा जब स्वयं गुरु ऐसे कार्यों में लगे हों अभिवादन नहीं करना चाहिए। बहुत सन्निकट खड़े होकर भी प्रणाम नहीं करना चाहिए (बौधायन ध० १।२।३१-३२) । जब व्यक्ति अपवित्र हो या अभिवादन पानेवाला अशौच में हो तब भी अभिवादन निषिद्ध है। विशेष, आपस्तम्बधर्म० (१।४।१४।१४- १७ एवं २३), मनु (२।१३५), विष्णुधर्मसूत्र (३२।१७) आदि स्थल अवलोकनीय हैं। स्मृत्यथसार (पृ० ७) ने लिखा है कि धर्मविरोधी, पापी, नास्तिक, जुआरी, चोर, कृतघ्न एवं शराबी को अभिवादन नहीं करना चाहिए (देखिए मनु ४।३० एवं याज्ञवल्क्य १।१३०)।
कुछ लोगों का सम्मान केवल आसन से उठ जाने में हो जाता है और अभिवादन की आवश्यकता नहीं पड़ती। अस्सी वर्ष या उससे अधिक वर्ष के शूद्र का सम्मान उच्च वर्ण के छोटी अवस्था वाले लोगों द्वारा होना चाहिए, किन्तु अभिवादन नहीं होना चाहिए। लम्बी अवस्था वाले शूद्रों द्वारा उच्च वर्ण के लोगों (आर्यों) का सम्मान आसन से उठकर होना चाहिए। ब्राह्मण यदि वेदज्ञ न हो तो उसे आसन प्रदान करना चाहिए, किन्तु उठना नहीं चाहिए, किन्तु यदि ऐसा व्यक्ति लम्बी अवस्था का हो तो उसका अभिवादन करना चाहिए (आप० ध० २।२।४।१६-१८ एवं मनु २।१३४) । इसी प्रकार अन्य नियम भी हैं।
विभिन्न टीकाकारों ने प्रत्यभिवाद के विषय में बहुत-सी जटिल व्याख्याएँ उपस्थित कर दी हैं। प्रणाम पाने पर गुरु या कोई व्यक्ति जो प्रत्युत्तर देता है या जो आशीर्वचन कहता है उसे ही प्रत्यभिवाद कहा जाता है। आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।२।५।१८) में कहा है-"प्रथम तीन वर्गों के अभिवादन के प्रत्युत्तर में अभिवादनकर्ता के नाम का अन्तिम अक्षर तीन मात्रा तक (प्लुत) बढ़ा दिया जाता है। इससे भिन्न वसिष्ठ (१३।४६) का नियम है। मनु (२।१२५) के अनुसार ब्राह्मण को इस प्रकार प्रत्यभिवाद देना चाहिए-“हे भद्र, आप दीर्घजीवी हों", और नाम का अन्तिम स्वर प्लुत कर देना चाहिए, किन्तु यदि नाम का अन्तिम अक्षर व्यंजन हो तो उसके पूर्व का स्वर प्लुत कर देना चाहिए। यही बात पाणिनि (८।२।८३) में भी पायी जाती है। महाभाष्य ने इसकी टिप्पणी की है और दो वार्तिकों द्वारा बतलाया है कि यह नियम स्त्रियों के प्रति लागू नहीं है, और क्षत्रिय एवं वैश्य के लिए विकल्प से लागू हो सकता है। आपस्तम्ब
६५. दक्षिणं बाहु श्रोत्रसमं प्रसार्य ब्राह्मणोऽभिवादयीतोर:समं राजन्यो मध्यसमं वैश्यो नीचः शूद्रः प्राञ्जलि। आप० ५० ११२।५।१६-१७, देखिए संस्कारप्रकाश, प० ४५४ ।
६६. प्रत्यभिवादेऽशूद्रे। पाणिनि ८२६८३; यदि अभिवादन करनेवाला ब्राह्मण हो (जैसा कि "अभिवादये देवदत्तोऽहं भोः" में पाया जाता है) तो प्रत्यभिवाद होगा-"आयुष्मानेधि देवदत्ता ३" (यहाँ ३ से तात्पर्य है प्लुप्त,
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