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उपनयम
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के आचारदिनकर (१४११-१२ ई.) ने जैनों के लिए ४२ मुद्राएँ बतायी हैं और उनकी परिभाषा भी दी है।
मुद्राओं का प्रभाव दूर-दूर तक गया। हिन्देशिया के बालि द्वीप में उनका प्रनार देखने में आता है। इस विषय में बालि के बौद्धों एवं शैव पुजारियों द्वारा व्यवहृत मुद्राओं पर एक बहुत ही मनोरंजक पुस्तक कुमारी तीरा दी क्लीन ने लिखी है, जिसमे ६० चित्र बी हैं। ५२
वेदाध्ययन
प्राचीन भारत की शिक्षा-पद्धति, पाठ्य-कम आदि पर विस्तार से लिखने पर एक बृहत् पुस्तक बन जायगी। हम यहाँ केवल प्रमुख बातों पर ही प्रकाश डाल सकेंगे।"
प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति का प्रधान आधार था शिक्षक, जिसे कई संज्ञाएँ मिली है, सधा आचार्य, गुरु, उपाध्याय । अध्यापन अथवा शिक्षण मौखिक ही होता था। ऋग्वेद (७।१०३१५) में आया है कि पढ़नेवाला गुरु या बातें उसी प्रकार दुहराता है जिस प्रकार एक मेढक टर्राने में दूसरे मेढक की वाणी पकड़ता है। इस विषय में देखिए अथर्व० (१११७।१); गो० दा० (२।१); अथर्व० (११७३); आप० धर्म० (१११११।१६-१८); शत० ब्राह्मण (१११५।४।१२); अथर्व० (११।७१६)एवं शत० ब्रा० (११।५।४।१-१७) । आरम्भ में पुत्र पिता से ही कुछ शिक्षा पाये रहता था, जैसा कि हमें बृहदारण्यकोपनिषद् (५.२।१ ) के श्वेतकेतु आरुणेय की गाथा से ज्ञात होता है। प्रारुणेय को सब कुछ ज्ञात था (बृहदारण्यकोपनिषद् ६।२।१ एव ४}। किन्तु प्राचीन काल में बच्चों को आचार्य के पास भेजा जाता था, और यह एक परिपाटी-सी हो गयी थी। छान्दोग्योपनिषद् (६१) में आया है कि श्वेतकेतु यारो को उसके पिता ने गुरु के पास १२ वर्षों तक रखा था। उसी उपनिषद् (३३२१५) ने यह भी आया है कि पिता को मधु विद्या अपन ज्येष्ठ पुत्र या योग्य शिष्य को बतानी चाहिए। गुरु की स्थिति को बड़ी महत्ता दी गयी थी। सारा का सारा अध्यापन मोखिक था, और विद्यार्थी गुरु के पास ही रहता था, अतः गुरु का पद स्वभावतः उच्च एवं महान हो गया था। सत्यकाम जाबाल अपने गुरु से कहता है.---"आपके ही समान अन्य गुरुजनों से मैने सुना है कि गुरु से प्राप्त किया हुआ कान महान् होता है" (छान्दोग्योपनिषद् ४१९३)। श्वेताश्वतरोपनिषद् (६।२३) ने गुरु को ईश्वर के पद पर रखा है
और परम श्रद्धास्पद माना है। आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।२।६।१३) ने लिखा है-"शिष्य को चाहिए कि वह गुरु को भगवान की भांति माने।" एकलव्य की कथा से दो बात स्पष्ट होती हैं, गरु की महत्ता एवं एकनिष्ठ भक्ति (आदिपर्व १३२, द्रोणपर्व १८१।१७) । एकलव्य निषाद था, किन्तु उसे धनुर्धर होना था। द्रोणाचार्य ने सिखाना अस्वीकार कर दिया था। किन्तु एकनिष्ठ साधना एवं भक्ति के फलस्वरूप एकलव्य महान् एवं यशस्वी धनुर्धर हो सका। महा
५२. Miss Tyra de Kleen : 'Mudras (the hand pcses) practised by Buddhists and Saiva priests' in Bali. (1924), New York.
५३. इस विषय में निम्नलिखित पुस्तके अवलोकनीय है-Rev. I. E.Kear's Ancient Indian Calear cation' (1918). Dr. A.S. Altekar's Education in Ancient India' (1934), S. K. Dus. on "Edu: cational system of the ancient Hindus' (1930) and Dr. S. D. Sarkar's 'Educational Ideas and Institutions in ancient India' (1928). The last work is based entirely on the Acharavaved and the Ramayana.
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