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धर्मशास्त्र का इतिहास
सन्ध्योपासन की प्रमुख क्रियाएं ये हैं- आचमन, प्राणायाम, मार्जन ( मन्त्रों द्वारा अपने ऊपर तीन बार पानी छिड़कना), अघमर्षण, अर्ध्य ( सूर्य को जल देना ), गायत्री जप एवं उपस्थान (प्रातःकाल सूर्य की एवं सायंकाल सामान्यतः ror की प्रार्थना मन्त्रों के साथ करना) ।
तैत्तिरीय आरण्यक (२/२) में सर्वप्रथम सन्ध्या का वर्णन पाया गया है, जहाँ अर्घ्य एवं गायत्री जप ही प्रधान क्रियाएँ देखने में आती हैं। कालान्तर में बहुत-सी बातें जुड़ती चली गयीं, जिनका विस्तार यहाँ अनावश्यक है। हम यहाँ उन बातों पर संक्षिप्त विवरण उपस्थित करेंगे। आचमन के विषय में विस्तृत नियम गौतम ० १ ३५/४०, आपस्तम्बधर्म० (२१५।१५।२ - ११ एवं १६), मनु (२/५८-६२), याज्ञवल्क्य ( १।१८-२१) में पाये जाते हैं । तैतिरीय ब्राह्मण (११५११०) एवं आपस्तम्बधर्म ० ( १/५/१५/५ ) के अनुसार पृथिवी के गड्ढे के जल से आचमन नहीं करना चाहिए। आचमन बैठकर उत्तर या पूर्व दिशा में (खड़े या झुककरं नहीं) करना चाहिए। इसके लिए पवित्र स्थान होना चाहिए। जल गरम या फेनिल नहीं होना चाहिए। जल को अधरों से तीन बार स्पर्श करना चाहिए (सुड़कना चाहिए)। बीले दाहिने हाथ से आँख, कान, नाक, उर एवं सिर छूना चाहिए। आचमन का जल ब्राह्मणों के लिए हृदय तक,
यों के लिए कण्ठ तक एवं वैश्यों के लिए तालु तक होना चाहिए। स्त्रियाँ एवं शूद्र उतना ही जल सुड़क सकते हैं जो उनके ताल तक जा सके। मनु (२।१८) एवं याज्ञवल्क्य (१।१८) के अनुसार जल ब्राह्मतीर्थ (अँगूठे की जड़) से सुडकना चाहिए। " आचमन की क्रिया सामान्यतः सभी धार्मिक क्रियाओं में देखी जाती है। भोजन करने के पूर्व एवं पश्चात् मी आचमन किया जाता है। आजकल आचमन विष्णु के तीन नामों (केशव, नारायण एवं माधव ) के साथ किया जाता है ( ओम् केशवाय नमः....आदि ) । कहीं कहीं विष्णु के २४ नाम लिये जाते हैं, यथा दक्षिण में ।
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प्राणायाम को योगसूत्र (२१४९) में श्वास एवं प्रश्वास का गति-विच्छेद कहा गया है।" गौतम (१।५०) के अनुसार प्राणायाम तीन हैं, जिनमें प्रत्येक १५ मात्राओं तक चलता है। बौधायनधर्मः ० (४/१/३० ), वसिष्ठधर्म ० (२५/१३), शंखस्मृति (७/१४) एवं याज्ञवल्क्य (१।२३) के अनुसार प्राणायाम के समय गायत्री का शिरः ( ओम् के साथ समन्वित तीनों व्याहृतियाँ) एवं गायत्री का मन्त्र मन-ही-मन दुहराये जाते हैं। योग-याज्ञवल्क्य के अनुसार प्रथम मन में सातों व्याहृतियाँ (जिनमें प्रत्येक के पहले 'ओम्' अवश्य जुड़ा रहना चाहिए), तब गायत्री मन्त्र और अन्त में
४६. कनिष्ठिका (फानी), तर्जनी एवं अंगूठे की जड़ों को एवं हाथ की अंगुलियों के पोरों को कम से प्राजापत्य (वा काय, पित्र्य, ब्राह्म एवं देव तीर्थ कहा जाता है (देखिए याज्ञ० १।१९, विष्णुधर्म० ६२३१-४, वसिष्ठधमं० ३६४-६८ बौधायनधर्म० १।५।१४-१८ ) । इस विषय में धन्यकारों में कुछ मतान्तर भी है, यथा वसिष्ठ के अनुसार फिन्य सर्जनी एवं अंगूठे के बीच में है एवं मानुष तीर्थ अंगुलियों के पोरों पर है। अन्य लोगों के मत से चार अंगुलियों की जड़ें आर्य तीर्थ कहलाती हैं (बौधायनधर्म० ११५ ११८ ) । वैखानस गृह्य० ११५ एवं पारस्करगृह्य परिशिष्ट मे पाँच तीचों के नाम लिये हैं (पांचवां है आग्नेय, अर्थात् हवेली ) । आग्नेय को अन्य लोगों ने सौम्य भी कहा
है।
४७. अग्निपुराण (अध्याय ४८) में विष्णु के २४ नाम आये हैं—केशव, नारायण, माधव, गोविन्द, विष्णु, मधुसूदन, त्रिविक्रम, वामन, श्रीधर, हृषीकेश, पद्मनाम, दामोदर, संकर्षण, वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, पुरुषोत्तम, अघोक्षज, नरसिंह, अच्युत, जनार्दन, उपेन्द्र, हरि, श्रीकृष्ण ।
४८. तस्मिन्सति ( आसनभये सति) श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः । योगसूत्र (२०४९) ।
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