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उपनयन
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तो उसे प्रायश्चित्त करना पड़ता था, यथा--स्नान करना, प्रार्थना एवं उपवास करना (देखिए लघुहारीत २३)। मिताक्षरा (याज्ञ० ३२९२) ने मल-मूत्र त्याग के समय दाहिने कान पर यज्ञोपवीत (याज्ञ० १२१६) न रखने के कारण प्रायश्चित्त की व्यवस्था की है। मनु (४।६६) ने दूसरे का यज्ञोपवीत पह्नने के लिए मना किया है। याज्ञवल्क्य (११६ एवं १३३ ) तथा अन्य स्मृतियों ने यज्ञोपवीत को ब्रह्मसूत्र कहा है।
क्या स्त्रियों का उपनयन होता था? क्या वे यज्ञोपवीत धारण करती थीं? इस विषय में कुछ स्मृतियों में निर्देश मिलते हैं। स्मृतिचन्द्रिका में उद्धृत हारीतधर्मसूत्र तथा अन्य निबन्धों में निम्न बात पायी जाती है-स्त्रियों के दो प्रकार हैं; (१) ब्रह्मवादिनी (ज्ञानिनी) एवं (२) सद्योयधू (जो सीधे विवाह कर लेती हैं); इनमें ब्रह्मवादिनी को उपनयन करना, अग्निसेवा करना, वेदाध्ययन करना, अपने गृह में ही भिक्षाटन करना पड़ता था, किन्तु सद्योवधुओं का विवाह के समय केवल उपनयन कर दिया जाता था। गोभिलगृह्यसूत्र के अनुसार (२।१।१९) लड़कियों को उपनयन के प्रतीक के रूप में यज्ञोपवीत धारण करना पड़ता था। आश्वलायनगृह्यसूत्र (३१८) ने समावर्तन के प्रसंग में लिखा है---"अपने दोनों हाथों में लेप (उबटन) लगाकर ब्राह्मण अपने मुख को, क्षत्रिय अपनी दोनों बाहुओं को, वैश्य अपने पेट को, स्त्री अपने गर्भस्थान को तथा जो दौड़ लगाकर अपनी जीविका चलाते हैं (सरणजीवी) वे अपनी जाँघों को लिप्त करें।"२ महाभारत (वनपर्व ३०५।२०) में आया है कि एक ब्राह्मण ने पाण्डवों की माता को अथर्वशीर्ष के मन्त्र पढ़ाये थे। हारीत ने व्यवस्था दी है कि मासिक धर्म चालू होने के पूर्व ही स्त्रियों का समावर्तन हो जाना चाहिए।" अतः स्पष्ट है कि ब्रह्मवादिनी नारियों का उपनयन गर्भाधान के आठवें वर्ष होता था, वे वेदाध्ययन करती थीं और उनका छात्रा-जीवन रजस्वला होने के (युवा हो जाने के) पूर्व समाप्त हो जाता था। यम ने भी लिखा है कि प्राचीन काल में मूंज की मेखला बांधना (उपनयन) नारियों के लिए भी एक नियम था, उन्हें वेद पढ़ाया जाता था, वे सावित्री (पवित्र गायत्री मन्त्र) का उच्चारण करती थीं, उन्हें उनके पिता, चाचा या भाई पढ़ा सकते थे, अन्य कोई बाहरी पुरुष नहीं पढ़ा सकता था, वे गृह में ही भिक्षा मांग सकती थीं, उन्हें मृगचर्म, वल्कल वसन नहीं पहनना पड़ता था और न वे जमाए रखती थी।" मन को भी यह बात ज्ञात थी। जातकर्म से लेकर उपनयन तक के संस्कारों के विषय में चर्चा
३०. यत्तु हारीतेनोक्तं द्विविधाः स्त्रियो ब्रह्मवादिन्यः सद्योवध्वश्च । तत्र ब्रह्मवादिनीनामुपनयनमग्नीन्धनं वेदाध्ययनं स्वगृहे च भिक्षाचर्येति । सद्योवधूनां तु उपस्थिते विवाहे कथंचिदुपनयनमात्रं कृत्वा विवाहः कार्यः। स्मृतिचन्द्रिका (भाग १, पृ० २४ में उद्धत) एवं संस्कारमयूख, पृ० ४०२।
३१. "प्रावृतां यज्ञोपवीतिनीमभ्युदानयन जपेत् सोमो ददन् गन्धर्वायेति।" गोभिलगृह्यसूत्र २।१।१९; इसकी टीका में आया है-"यज्ञोपवीतवत्कृतोत्तरीयाम्"; "न तु यज्ञोपवीतिनीमित्यनेन स्त्रीणामपि कर्मा गत्वेन यज्ञोपवीतधारणमिति हरिशर्मोक्तं युक्तं स्त्रीणां यज्ञोपवीतधारणानुपपत्तेः ।" संस्कारतत्व, पृ० ८९६ ।
३२. अनुलेपनेन पाणी प्रलिप्य मुखमप्रे ब्राह्मणोऽनु लिम्पेत् । बाहू राजन्यः । उदरं वैश्यः । उपस्थं स्त्री। अरू सरणजीविनः। आश्व० ३।८।२।।
३३. ततस्तामनवद्यांगी ग्राहयामास स द्विजः । मन्त्रग्रामं तदा राजन्नथर्वशिरसि श्रुतम्॥ वनपर्व ३०५।२० । ३४. प्रामजसः समावर्तनम् इति हारीतोक्त्या । संस्कारप्रकाश, पृ० ४०४ ।
३५. यमोपि। पुराकल्पे कुमारीणां मौजीबन्धनमिष्यते। अध्यापनं च वेदानां सावित्रीवाचन तथा॥ पिता पितृव्यो भ्राता वा नेनामध्यापयेत्परः । स्वगृहे चैव कन्याया भक्षचर्या विधीयते॥ वर्जयेदजिनं चीरं जटाधारणमेव च ॥ संस्कारप्रकाश पृ० ४०२-४०३; स्मृतिचन्द्रिका (भाग १, पृ० २४) में ये श्लोक मन के कहे गये हैं।
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