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उपनयन
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धर्मसूत्र (२।२।४।२३) पर विश्वास करके श्राद्ध-भोजन के समय पवित्र सूत्र धारण नहीं करना चाहिए, प्रत्युत उसे उसी रूप में वस्त्र धारण करना चाहिए और सूत्र का त्याग कर देना चाहिए; (२) दूसरा मत यह है कि उसे उपवीत ढंग से पवित्र सूत्र एवं वस्त्र दोनों धारण करने चाहिए। आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।५।१५।१) ने व्यवस्था दी है कि एक ब्यक्ति को गुरुजनों, श्रद्धास्पदों, अतिथियों की प्रतीक्षा करते समय या उनकी पूजा करते समय, होम के समय, जप करते हुए, भोजन, आचमन एवं वैदिक अध्ययन के समय यज्ञोपवीती होना चाहिए। इस पर हरदत्त ने यों व्याख्या की है--यज्ञोपवीत का अर्थ है एक विशिष्ट ढंग से उत्तरीय धारण करना, यदि किसी के पास उत्तरीय (ऊपरी अंग के लिए) न हो तो उसे आपस्तम्बधर्म सूत्र (२।२।४।२३) में वर्णित ढंग काम में लाना चाहिए; अन्य समयों में यज्ञोपवीत की आवश्यकता नहीं है।
गोभिलगृह्यसूत्र (११२।१) में आया है कि विद्यार्थी यज्ञोपवीत के रूप में सूत्रों की डोरी, वस्त्र या कुश की रस्सी धारण करता है। इससे स्पष्ट है कि गोभिल के काल में जनेऊ का रूप प्रचलित था और वह यज्ञोपवीत का उचित रूप माना जाने लगा था, किन्तु वही अन्तिम रूप नहीं था, उसके स्थान पर वस्त्र भी धारण किया जा सकता था। बहुतसे गृह्यसूत्रों में मूत्र रूप में यज्ञोपवीत का वर्णन नहीं मिलता और न उसे पहनते समय किसी वैदिक मन्त्र की आवश्यकता ही समझी गयी (जब कि उपनयन-सम्बन्धी अन्य कृत्यों के लिए वैदिक मन्त्रों की भरमार पायी जाती है)। अतः ऐसी कल्पना करना उचित ही है कि बहुत प्राचीन काल में सूत्र धारण नहीं किया जाता था; आरम्म में उत्तरीय ही धारण किया जाता था। आगे चलकर सूत्र भी, जिसे हम जनेऊ कहते हैं, प्रयोग में आने लगा। “यज्ञोपवीतं परमं पवित्रम्" वाला मन्त्र केवल बौधायनगृह्यसूत्र (२।५।७-८ एवं वैखानस २१५) में मिलता है, यह प्राचीनतम धर्मशास्त्र ग्रन्थों में नहीं पाया जाता। मनु (२।४४) ने भी उपवीत के विषय में चर्चा चलायी है।
यज्ञोपवीत के विषय में कई नियम बने हैं। यज्ञोपवीत में तीन सूत्र होते हैं, जिनमें प्रत्येक सूत्र में नौ धागे (तन्तु)
२१. नित्यमुत्तरं वासः कार्यम् । अपि वा मूत्रमेवोपवीतार्थे। आप० धर्म० २।२।४।२२-२३; सोत्तराच्छादनश्चय यज्ञोपवीती भुञ्जीत । आप० धर्म० २।८।१९।१२; हरदत्त ने व्याख्या की है-"उत्तराच्छादनमुपरिवासः, तेन यज्ञोपवीतेन यज्ञोपवीतं कृत्वा भुञ्जीत । नास्य भोजने 'अपि वा सूत्रमेवोपवीतार्थे' इत्ययं कल्पो भवतीत्ययेके। समुच्चय इत्यन्ये"; यज्ञोपवीती द्विवस्त्रः । अधोनिवीतस्त्वेकवस्त्रः। आप० धर्म० ११२।६।१८-१९; उपासने गुरूणां वृद्धानामतिथीनां होमे जप्यकर्मणि भोजने आचमने स्वाध्याये च यज्ञोपवीती स्यात् । आप० धर्म० १२५।१५।१, हरवत्त ने लिखा है--"वासोविन्यासविशेषो यज्ञोपवीतम् । दक्षिणं बाहुमुखरत इति ब्राह्मणविहितम् । वाससोसंभवेऽनुकल्पं वक्यति-अपि वा सूत्रमेवोपवीतार्य इति । एषु विधानात् कालान्तरे नावश्यंभावः ।",देखिए औशनसस्मृति---'अग्न्यगारे गवां गोष्ठ होमे जप्ये तथैव च। स्वाध्याये भोजने नित्यं ब्राह्मणानां च संनिधौ। उपासने गुरूणां च संध्ययोरुभयोरपि । उपबीती भवेन्नित्यं विधिरेष सनातनः॥'
२२. यज्ञोपवीतं कुरुते वस्त्रं वापि वा कुशरज्जुमेव । गोभिल गृ० (१।२।१); सूत्रमपि वस्त्राभावावितव्यमिति। अपि वाससा यज्ञोपवीतार्थान् कुर्यात्तदभावे त्रिवृता सूत्रणेति ऋष्यशृंगस्मरणात् । स्मृतिचन्त्रिका, जिल्ब १, पृ. ३२॥
२३. देखिए स्मृत्यर्थसार, पृ०४ एवं संस्कारप्रकाश, पृ० ४१६-४१८, जहाँ उपवीत के निर्माण एवं निर्माता के विषय में चर्चा की गयी है। सौभाग्यवती नारी द्वारा निर्मित उपवीत विधवा द्वारा निर्मित उपवीत से अच्छा माना जाता था। आचाररत्न में उद्धृत मदनरत्न ने मनु (२०४४) के ऊर्ध्ववृत को इस प्रकार समझाया है-करेण दक्षिणेनोवंगतेन त्रिगुणीकृतम् । वलितं मानवे शास्त्रे सूत्रमूर्ध्ववृतं स्मृतम् ॥' (पृ०२)।
धर्म०२८
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