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धर्मशास्त्र का इतिहास
उपनयन संस्कार की महत्ता इतनी बढ़ गयी कि कुछ प्राचीन ग्रन्थों ने अश्वत्थ वृक्ष के उपनयन की चर्चा कर डाली है ( बौधायन गृह्यशेषसूत्र २ । १० ) । आज कल यह उपनयन बहुत कम देखने में आता है । अश्वत्य के पश्चिम होम किया जाता है, पुंसवन से आगे के संस्कार किये जाते हैं (अनुकृति के आधार पर ही ) किन्तु व्याहृतियों के साथ ही ; ऋग्वेद (३।८।११) के "वनस्पते० " के साथ वृक्ष का स्पर्श होता है। वृक्ष और पूजक के बीच में एक वस्त्र - खण्ड रखा जाता है, तब आठ शुभ श्लोक (मंगलाष्टक) कहे जाते हैं, तब वस्त्र हटा दिया जाता है और ध्रुवसूक्त (ऋग्वेद १०। ७२1१-९) नामक स्तुतिगान होता है। इसके उपरान्त वस्त्र खण्ड, यज्ञोपवीत, मेखला, दण्ड एवं मृगचर्मं मन्त्रों के साथ चढ़ा दिये जाते हैं और वृक्ष को स्पर्श करके गायत्री मन्त्र पढ़ा जाता है।
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सावित्री - उपदेश
शतपथब्राह्मण (११।५।४।१-१७) से पता चलता है कि उपनयन के एक वर्ष, छ: मास, २४, १२ या ३ दिन के उपरान्त गुरु (आचार्य) द्वारा पवित्र गायत्री मन्त्र का उपदेश ब्रह्मचारी के लिए किया जाता था, किन्तु ब्राह्मण ब्रह्मचारियों के लिए गायत्री उपदेश तुरंत कर दिया जाता था । यह नियम इसलिए था कि कुछ पढ़ लिख लेने के उपरान्त ही ठीक से उच्चारण सम्भव था। शांखायनगृह्यसूत्र ( २/५), मानवगृह्यसूत्र (१।२२।१५), भारद्वाजगृह्यसूत्र (१।९), पारस्करगृह्यसूत्र ( २३ ) में भी यही नियम पाया जाता है। किन्तु सामान्य नियम तो यह था कि उपनयन के दिन ही गायत्री का उपदेश होता रहा है। अधिकांश सूत्रों के मतानुसार आचार्य अग्नि के उत्तर पूर्वाभिमुख होता है और ब्रह्मचारी पश्चिम-मुख बैठकर आचार्य से पवित्र सावित्री मन्त्र सुनाने को कहता है, तब आचार्य पहले एक पाद, तब दो पाद और फिर पूर्ण मन्त्र सिखाता है। बौधायनगृह्यसूत्र ( २/५/३४-३७ ) के अनुसार ब्रह्मचारी अग्नि में पलाश की या किसी अन्य यज्ञोचित वृक्ष की चार लकड़ियाँ घी में डुबोकर डालता है और अग्नि, वायु, आदित्य एवं व्रत के स्वामी के लिए मन्त्रोच्चारण करता है और आहुति देते समय स्वाहा कहता है। सूत्रों एवं टीकाओं में गायत्री के उपदेश के विषय में बहुत-से जटिल नियम हैं, किन्तु ये जटिल नियम एवं अन्तर व्याहृतियों (भूर्भुवः स्वः) के स्थान को लेकर उत्पन्न हो गये हैं। * आपस्तम्बगृह्यसूत्र (२/२) से सुदर्शन के दो उदाहरण यहाँ टिप्पणी में दिये जाते हैं। "
४०. भूः भुवः एवं स्वः नामक रहस्यात्मक शब्द कभी-कभी महाव्याहृतियाँ कहे जाते हैं (गोभिलगृह्यसूत्र २|१०|४० ; मनु २।८१) । इन्हें केवल व्याहृतियाँ भी कहा जाता है। देखिए तंत्तिरीयोपनिषद् १।५०१, जहाँ महः को चौथी व्याहृति कहा गया है। व्याहृतियों की संख्या सामान्यतः ७ है; भूः भुवः स्वः, महः, जनः तपः एवं सत्यम् ( वसिष्ठ २५।९, वैखानस ७।९ ) । गौतम (१।५२ एवं २५।८) ने ये ५ व्याहृति लिखी है, यथा-भूः भुवः स्वः, पुरुषः एवं सत्यम् । व्याहृतिसाम में भी पांच ही नाम आये हैं, किन्तु वहाँ पुरुष सबसे अन्त में आया है।
४१. व्याहृतीविहृताः पादादिष्वन्तेषु वा तयर्धचंयोरुत्तमां कृत्स्नायाम् । आप० गृह्य० २२; जिस पर सुदर्शन का कहना है - ' भूस्तत्सवितुर्वरेण्यम् । ॐ भुवः भर्गो देवस्य धीमहि । ओं सुवः धियो यो नः प्रचोदयात् । ओं भूस्तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । ओं भुवः धियो यो नः प्रचोदयात् । ओं सुवः तत्सवितुरस्य भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।' यह पहली विधि है। दूसरी विधि है व्याहृतियों को अन्त में रख देना, यथा--' ओं तत्सवितुर्वरेण्यं भूः । ओं भर्गो देवस्य धीमहि भुवः । ओं धियो यो नः प्रचोदयात् सुवः । ओं तत्सवितुर्वरेण्यं धीमहि भूः । ओं धियो यो नः प्रचोदयात् भुवः । ओं तत्सवितु यात् सुवः ।' मिलाइए, भारद्वाजगृह्य० ११९; बौधायनगृ० २।५।४० | 'स्वः' अधिकतर "सुवः " कहा गया है। ओमिति ब्रह्म । ओमितीवं सर्वम् । ओमिति ब्राह्मणः प्रवश्यन्नाह ब्रह्मोपाप्नवानीति ।
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