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२११ पहुँचे तो वे (अश्वपति) उनसे बिना उपनयन की क्रियाएँ किये ही बातें करने लगे। जब सत्यकाम जाबाल ने अपने गोत्र का सच्चा परिचय दे दिया तो गौतम हारिद्रुमत ने कहा -- “हे प्यारे बच्चे, जाओ समिधा ले आओ, मैं तुम्हें दीक्षित करूंगा। तुम सत्य से हटे नहीं" ( छान्दोग्य० ४।४।५) । अति प्राचीन काल में सम्भवतः पिता ही अपने पुत्र को पढ़ाता था । किन्तु तैत्तिरीयसंहिता एवं ब्राह्मणों के कालों से पता चलता है कि छात्र साधारणतः गुरु के पास जाते थे और उसके यहाँ रहते थे। उद्दालक आरुणि ने, जो स्वयं ब्रह्मचारी एवं पहुँचे हुए दार्शनिक थे, अपने पुत्र श्वेतकेतु को ब्रह्मचारी रूप वेदाध्ययन के लिए गुरु के पास जाने को प्रेरित किया । " छान्दोग्योपनिषद् में ब्रह्मचर्याश्रम का भी वर्णन हुआ है, जहाँ पर विद्यार्थी (ब्रह्मचारी) अपने अन्तिम दिन तक गुरुगृह में रहकर शरीर को सुखाता रहा है ( छा० २।२३।१ ), यहाँ पर नैष्ठिक ब्रह्मचारी की ओर संकेत है । इस उपनिषद् में गोत्र - नाम ( ४ | ४१४), मिक्षा-वृत्ति (४/३/५ ), अग्नि-रक्षा (४/१०/१-२ ), पशु-पालन ( ४/४/५ ) का भी वर्णन है। उपनयन करने की अवस्था पर औपनिषदिक प्रकाश नहीं प्राप्त होता, यद्यपि हमें यह ज्ञात है कि श्वेतकेतु ने जब ब्रह्मचर्य धारण किया तो उनकी अवस्था १२ वर्ष की थी । साधारणतः विद्यार्थी जीवन १२ वर्ष का था ( छान्दोग्य० २।२३।१, ४।१०।१ तथा ६।१।२), यद्यपि इन्द्र के ब्रह्मचर्य की अवधि १०१ वर्ष की थी ( छान्दोग्य ० ८ |२| ३ ) । एक स्थान पर छान्दोग्योपनिषद् ( २।२३।१) ने जीवनपर्यन्त ब्रह्मचर्य की चर्चा की है।
उपनयन
अब हम सूत्रों एवं स्मृतियों में वर्णित उपनयनसंस्कार का वर्णन करेंगे। इस विषय में एक बात स्मरणीय है कि इस संस्कार से सम्बन्धित सभी बातें सभी स्मृतियों में नहीं पायी जातीं और न उनमें विविध विषयों का एक अनुक्रम में वर्णन ही पाया जाता है। इतना ही नहीं, वैदिक मन्त्रों के प्रयोग के विषय में सभी सूत्र एकमत नहीं हैं। अब हम क्रम से उपनयन संस्कार के विविध रूपों पर प्रकाश डालेंगे ।
उपनयन के लिए उचित अवस्था एवं काल
आश्वलायनगृह्यसूत्र (१/१९/१-६ ) के मत से ब्राह्मणकुमार का उपनयन गर्भाधान या जन्म से लेकर आठवें वर्ष में, क्षत्रिय का ११ वें वर्ष में एवं वैश्य का १२वें वर्ष में होना चाहिए, यही नहीं, क्रम से १६वें, २२वें एवं २४वें वर्ष तक भी उपनयन का समय बना रहता है।" आपस्तम्ब ( १०१२), शांखायन (२1१), बौधायन ( २/५/२), भारद्वाज
९. ते ह समित्पाणयः पूर्वाह्णे प्रतिचक्रमिरे तान्हानुपनीयंवतदुवाच । छान्दोग्य ० ५|२|७; समिधं सोम्याहरोप त्वा नेष्ये न सत्यावगा इति । छान्दोग्य ० ४१४१५; उपम्यहं भवन्तमिति वाचा ह स्मैव पूर्व उपयन्ति स होपायनकीर्त्योवास । वृहदारण्यकोपनिषद् ६।२७ ।
१०. बेलिए बृह० उ० ६।२।१ "अनुशिष्टो वसि पित्रेत्योमिति होवाच ।" याज्ञवक्त . विश्वरूप ने लिखा है— गुरुप्रहणं तु मुख्यं पितुरुपनेतृत्वमिति । तथा च श्रुतिः । तस्मात्पुत्रः आचार्योपनयनं तु ब्राह्मणस्यानुकल्पः ।
११. श्वेतकेतुर्हदय आस तं ह पितोवाच श्वेतकेतो वस ब्रह्मचयं स ह द्वादशवर्ष उपेत्य चतुर्विंशतिवर्षः सर्वान्येवानधीत्य महामना अनूचानमानी स्तब्ध एयाय तं ह पितोवाच श्वेतकेतो. उत तमावेशमप्रायः येनाश्रुतं श्रुतं भवति । छान्दोग्य० ६।१।१११-२ ।
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१२. अष्टमे वर्षे ब्राह्मणमुपनयेत् । गर्भाष्टमे वा । एकादशे क्षत्रियम्। द्वादशे वैश्यम् । आ षोडशाद् ब्राह्मणस्याततः कालः । आ द्वाविशात्क्षत्रियस्य । आ चतुविंशाश्यस्य । अश्वलायनगृह्यसूत्र १।१९।१-६ ।
(१११५) की टीका में शिष्टं लोक्यमाहुरिति ।
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