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शिशुकाल के संस्कार अपनी माता को जातुकर्णी कहा है। महाभाष्य की कारिका से हम पाते हैं कि वैयाकरण पाणिनि दाली के पुत्र थे।
आश्वलायनगृह्यसूत्र ने नामकरण का वर्णन नहीं किया है। बहुत-से गृह्यसूत्रों ने ऐसा लिखा है कि सूतिकाग्नि को हटाकर औपासन (गृह्य) अग्नि में नामकरण के लिए होम करना चाहिए। भारद्वाज ने जया, अभ्यातान एवं राष्ट्रमृत् मन्त्रों के दुहराने तथा घृत की आठ आहुतियाँ मन्त्रों के साथ दिये जाने की बात चलायी है। यही बात हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र में भी है (२।४।६-१४)। इस गृह्यसूत्र ने दो नामों की चर्चा की है, अर्थात् एक गुह्यनाम तथा दूसरा साधारण नाम। इसने १२ आहुतियों की चर्चा की है, जिनमें ४ मातृकाओं को, ४ अनुमति को, २ राका को एवं २ सिनीवाली को दी जाती हैं। कुछ मतों से एक तेरहवीं आहुति है कुहू की।
कालान्तर के धर्मशास्त्रकारों ने बहुत विस्तार के साथ यह संस्कार-क्रिया करने को लिखा है। गोद में बच्चे को रखकर माता पति के दाहिने बैठती है। कुछ लोगों के मत से माता ही गुह्य नाम रखती है, और धान की भूसी को कांसे के बरतन में छिड़ककर सोने की लेखनी से "श्रीगणेशाय नमः" लिखती है और तब बच्चे के चार नाम लिखती है, यथा कुलदेवतानाम (जैसे योगेश्वरीभक्त), मासनाम, व्यावहारिक नाम तथा नाक्षत्र नाम।
कुछ सूत्रों में नामकरण के उपरान्त कुछ अन्य विस्तार भी पाये जाते हैं। यात्रा से लौटने पर पिता पुत्र के सिर को हाथ से छूकर नाम के साथ कहता है--"अंगादंगात्..." और उसे तीन बार सूंघता है। पुत्री के लिए यह नहीं होता, यथा माथा सूघना या मन्त्रोच्चारण; केवल गद्य में ही कुछ कहना होता है। इससे स्पष्ट है कि पुत्री की अपेक्षा पुत्र को अधिक महत्त्व दिया जाता था, यद्यपि पुत्री को बिल्कुल निरादृत नहीं समझा गया है।
कर्णवेध आधुनिक काल में जन्म के बारहवें दिन यह किया जाता है। बौधायनगृह्यसूत्र (१११२) में कर्णवेध ७वें या ८वें मास में करने को कहा गया है, किन्तु वृहस्पति के अनुसार यह जन्म के १०३, १२वें या १६वें दिन या ७वे या १०वें मास में करना चाहिए। स्मृतिचन्द्रिका में बहुत ही संक्षेप में यह लिखा गया है। कर्णवेध के उपरान्त ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है। आधुनिक काल में यह कार्य सोनार करता है। बच्चे के कान के लटकते हुए भाग में पतले तार से छेद कर उसे गोलाकार बाँध दिया जाता है। लड़की के कर्णवेध में पहले बायाँ कान छेदा जाता है। निरुक्त (२।४) से पता चलता है कि प्राचीन काल में भी यह संस्कार किया जाता था। वहाँ आया है--- जो (गुरु) कान को सत्य के साथ छेदता है, बिना पीड़ा दिये जो अमृत ढालता है, वह अपने माता एवं पिता के समान है।
निष्क्रमण यह एक छोटा कृत्य है। पारस्करगृह्यसूत्र (१।१७) में बहुत ही संक्षेप में इसका वर्णन आया है। गोमिल (२।८।१-७), खादिर० (२।३।१-५), बौधायन० (११।२), मानव० (१।१९।१-६), काठक० (३७-३८) में वर्णन
१३. य आतृणत्यवितयेन कर्णावदुःखं कृण्वन्नमृतं संप्रयच्छन्। तं मन्येत पितरं मातरं च तस्मै न द्रुह्येत्कतमच्चनाह ॥ निरुक्त (२४)। यह श्लोक वसिष्ठ० (२।१०) एवं विष्णुधर्मसूत्र (३०।४७) में भी आया है। देखिए शान्तिपर्व (१०८।२२-२३) एवं मनु (२११४४)।
धर्म० २६
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