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धर्मशास्त्र का इतिहास
(ऋ० ३।५३।१६ ) | अतः 'विश्' शब्द ऋग्वेद की सभी स्तुतियों में 'वैश्य' का बोधक नहीं, प्रत्युत 'जन' या 'आर्य जन' का द्योतक है। ऐतरेय ब्राह्मण ( १।२६ ) के अनुसार 'विश:' का अर्थ है 'राष्ट्रिणी' (देश) ।
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श्रुति-ग्रन्थों के उपरान्त के ग्रन्थों में 'दास' का अर्थ है 'गुलाम' (कीत मृत्य ) । ऋग्वेद में जिन दास जातियों का उल्लेख हुआ है, वे आर्यों की विरोधी थीं, वे कालान्तर में हरा दी गयीं और अन्त में आर्यों की सेवा करने लगीं । मनुस्मृति के मत में शूद्र की उत्पत्ति भगवान् ने ब्राह्मणों के दास्य के लिए की। ब्राह्मण-ग्रन्थों में शूद्रों को वही स्थान प्राप्त है जो स्मृतियों में है । इससे स्पष्ट है कि आर्यों द्वारा विजित दास या दस्यु क्रमश: शूद्रों में परिणत हो गये। आरम्भ में वे वैरी थे, किन्तु धीरे-धीरे उनसे मित्र मात्र स्थापित हो गया। ऋग्वेद में भी इस मित्र-भाव की झलक मिल जाती है, यथा दास बल्भूथ एवं तरुक्ष से संगीतज्ञ ने एक सौ गायें या अन्य दान लिये (८/४६ । ३२ ) । ॠग्वेद के पुरुषसूक्त (१०/९०।१२) के मत में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र क्रम से परम पुरुष के मुख, बाहुओं, जाँघों एवं पैरों से उत्पन्न हुए । इस कथन के आगे ही सूर्य एवं चन्द्र परम पुरुष की आँख एवं मन से उत्पन्न कहे गये हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि पुरुषसूक्त के कवि की दृष्टि में समाज का चार भागों में विभाजन बहुत प्राचीन काल में हुआ था और यह उतना ही स्वाभाविक एवं ईश्वरसम्मत था जितनी कि सूर्य एवं चन्द्र की उत्पत्ति ।
ऋग्वेद में आर्य लोग काले चर्म वाले लोगो से पृथक् कहे गये हैं । धर्मसूत्रों में शूद्रों को काले वर्ण का कहा गया है (आपस्तम्बधर्म० १।९।२७।११; बौ० धर्मसूत्र २।१।५९ ) । जैसे पशुओं में घोड़ा होता है, वैसे मनुष्यों में शूद्र है, अत: शूद्र यज्ञ के योग्य नहीं है ( तैत्तिरीय संहिता - शूद्रो मनुष्याणामश्वः पशूनां तस्मात्तौ मुतसंक्रामिणावश्वश्च शूद्रश्च तस्माच्छूद्रो यज्ञेऽनवक्लृप्तः | ७|१|१|६ ) । इससे स्पष्ट है, वैदिक काल में शूद्र यज्ञ आदि नहीं कर सकते थे, वे केवल पालकी ही ढोते थे । 'शूद्र एक चलता-फिरता श्मशान है, उसके समीप वेदाध्ययन नहीं करना चाहिए' ऐसा श्रुतिवाक्य है । किन्तु तैत्तिरीय संहिता में आया है— 'हमारे ब्राह्मणों में प्रकाश भरो, हमारे मुख्यों (राजाओं) में प्रकाश भरो, वैश्यों एवं शूद्रों में प्रकाश भरो और अपने प्रकाश से मुझ में भी प्रकाश भरो।" इससे स्पष्ट होता है कि शूद्र लोग, जो प्रथमतः दास जाति के थे, उस समय तक समाज के एक अंग हो गये थे और परमात्मा से प्रकाश पाने में तीन उच्च जातियों के समकक्ष ही थे। ऐतरेय ब्राह्मण में आया है कि 'उसने ब्राह्मणों को गायत्री के साथ उत्पन्न किया, राजन्य को त्रिष्टुप के साथ और वैश्य को जगती के साथ, किन्तु शूद्र को किसी भी छन्द के साथ नहीं उत्पन्न किया' (ऐतरेय ब्राह्मण ५।१२) । ताण्ड्यमहाब्राह्मण ( ६ | १|११ ) में आया है - ' अतः एक शूद्र, भले ही उसके पास बहुत-से पशु हों, यज्ञ करने के योग्य नहीं है, वह देव-हीन है, उसके लिए ( अन्य तीन वर्णों के समान) किसी देवता की रचना नहीं की गयी, क्योंकि उसकी उत्पत्ति पैरों से हुई ( यहाँ पुरुषसूक्त की ओर संकेत है, यथा पद्भ्यां शूद्रो अजायत ) । इससे यह कहा जा सकता है कि पशुओं से संपन्न शूद्र भी द्विजों की पद-पूजा किया करता था । शतपथब्राह्मण कहता है, 'शूद्र असत्य है', 'शूद्र श्रम है', 'किसी दीक्षित व्यक्ति को शूद्र से भाषण नहीं करना चाहिए।' ऐतरेय ब्राह्मण में उल्लेख है - ' ( शूद्रो : ) अन्यस्य प्रेष्यः कामोत्थाप्यः यथाकामवध्य:' ( ३५०३), अर्थात् शूद्र दूसरों से अनुशासित होता है, वह किसी की आज्ञा पर उठता है, उसे कभी भी पीटा जा सकता है। इन सब उद्धरणों से स्पष्ट है कि यद्यपि शूद्र लोग
६. शूद्रं तु कारयेद् वास्यं क्रीतमक्रीतमेव वा । वास्यार्थव हि सृष्टोऽसौ ब्राह्मणस्य स्वयंभुवा ॥ मनु० ८ ४१३ । ७. रुचं नो धेहि ब्राह्मणेषु रुचं राजसु नस्कृषि । दवं विश्येषु शूद्रेषु मयि धेहि रचा रुचम् ।। तै० सं०५।७।६।३-४१ ८. तस्माच्छूद्र उत बहुपशुरयन्नियो विदेवो नहि तं काचन देवतान्वसृज्यत तस्मात्पादावनेज्यं नातिवर्धते पत्तो हि सृष्टः । ताण्ड्य ० ६ | १|११ ।
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