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१८.
धर्मशास्त्र का इतिहास संस्कार एवं वर्ण-द्विजातियों में गर्भाधान से लेकर उपनयन तक के संस्कार अनिवार्य माने गये हैं तथा स्नान एवं विवाह नामक संस्कार अनिवार्य नहीं हैं, क्योंकि एक व्यक्ति छात्र-जीवन के उपरान्त संन्यासी भी हो सकता है (जाबालोपनिषद्)। संस्कारप्रकाश ने क्लीब बच्चों के लिए संस्कारों की आवश्यकता नहीं मानी है।
___ क्या शूद्रों के लिए कोई संस्कार है ? व्यास ने कहा है कि शूद्र लोग बिना वैदिक मन्त्रों के गर्माधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चौल, कर्णवेध एवं विवाह नामक संस्कार कर सकते हैं। किन्तु बैजवापगृह्यसूत्र में गर्भाधान (निषेक) से लेकर चौल तक के सात संस्कार शूद्रों के लिए मान्य हैं। अपरार्क (याज्ञ. ११११-१२ पर) के अनुसार अर्भाधान से चौल तक के आठ संस्कार सभी वर्गों के लिए (शूद्रों के लिए भी) मान्य हैं। किन्तु मदनरत्न, रूपनारायण तथा निर्णयसिन्धु में उद्धृत हरिहर भाष्य के मत से शूद्र लोग केवल छ: संस्कार, यथा--जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ा एवं विवाह तथा पंचाह्निक (प्रति दिन के पांच) महायज्ञ कर सकते हैं। रघुनन्दन के शूद्रकृत्यतत्त्व में लिखा है कि शूद्र के लिए पुराणों के मन्त्र ब्राह्मण द्वारा उच्चरित हो सकते हैं, शूद्र केवल "नमः" कह सकता है। निर्णयसिन्धु ने भी यही बात कही है। ब्रह्मपुराण के अनुसार शूद्रों के लिए केवल विवाह का संस्कार मान्य है। निर्णयसिन्धु ने मत-वैभिन्न्य की चर्चा करते हुए लिखा है कि उदार मत सत्-शूद्रों के लिए तथा अनुदार मत असत्-शूद्रों के लिए है। उसने यह भी कहा है कि विभिन्न देशों में विभिन्न नियम हैं।
संस्कार-विधि--आधुनिक समय में गर्भाधान, उपनयन एवं विवाह नामक संस्कारों को छोड़कर अन्य संस्कार बहुधा नहीं किये जा रहे हैं। आश्चर्य तो यह है कि ब्राह्मण लोग भी इन्हें छोड़ते जा रहे हैं। अब कहीं-कहीं गर्भाधान भी त्यागा-सा जा चुका है। नामकरण एवं अन्नप्राशन संस्कार मनाये जाते हैं, किन्तु बिना मन्त्रोच्चारण तथा पुरोहित को बुलाये। अधिकतर चौल उपनयन के दिन तथा समावर्तन उपनयन के कुछ दिनों के उपरान्त किये जाते हैं। बंगाल ऐसे प्रान्तों में जातकर्म तथा अन्नप्राशन एक ही दिन सम्पादित होते हैं। स्मृत्ययंसार का कहना है कि उपनयन को छोड़कर यदि अन्य संस्कार निर्दिष्ट समय पर न किये जायें तो व्याहृतिहोम' के उपरान्त ही वे सम्पादित हो सकते हैं। यदि किसी आपत्ति के कारण कोई संस्कार न सम्पादित हो सका हो तो पादकृच्छ नामक प्रायश्चित्त करना आवश्यक माना जाता है। इसी प्रकार समय पर चौल न करने पर अर्घ-कृच्छ करना पड़ता है। यदि बिना आपत्ति के जान-बूझकर संस्कार न किये जायें तो दूना प्रायश्चित करना पड़ता है। इस विषय में निर्णयसिन्धु ने शौनक के श्लोक उद्धृत किये हैं।' निर्णयसिन्धु ने कई मतों का उद्धरण दिया है। एक के अनुसार प्रायश्चित्त के उपरान्त छोड़े हुए संस्कार पुनः नहीं किये जाने चाहिए, दूसरे मत के अनुसार सभी छोड़े हुए संस्कार एक बार ही कर लिये जा सकते हैं और तीसरे मत से छोड़ा हुआ चौलकर्म उपनयन के साथ सम्पादित हो सकता है। धर्मसिन्धु (तृतीय परिच्छेद, पूर्वार्ष) ने उपर्युक्त प्रायश्चित्तों के स्थान पर अपेक्षाकृत सरल प्रायश्चित्त बताये हैं, यथा एक प्राजापत्य तीन पादकृच्छों के बराबर है, प्राजापत्य के स्थान पर
२. भूः, भुवः, स्वः (या सुवः) नामक रहस्यात्मक शब्दों के उच्चारण के साथ विमलीकृत मक्खन की आहुति देना व्याहृति-होम कहलाता है।
३. अय संस्कारलोपे शौनकः-आरम्याषानमाचौलात् कालेऽतीते तु कर्मणाम्। व्याहत्याग्नि तु संस्कृत्व हुत्वा कर्म यथाक्रमम् ॥ एतेष्वेककलोपे तुंपादकृच्छ समाचरेत् । चूड़ायामकृच्छ स्वादापनि स्वेवमीरितम् । अनापति तु सर्वत्र द्विगुणं द्विगुणं चरेत् ॥ निर्णयसिन्धु, ३ पूर्वार्ष; स्मृपि मु० (वर्णाश्रमधर्म, पृ. ९९) ।
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