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ब्रारम्भिक संस्कार
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एक गाय का दान तथा गाय के अभाव में एक सोने का निष्क (३२० गुञ्जा), पूरा या आधा या चौथाई भाग दिया जा सकता है। दरिद्र व्यक्ति चांदी के निष्क का भाग या उसी मूल्य का अन्न दे सकता है। क्रमशः इन सरल परिहारों (प्रत्याम्नायों) के कारण लोगों ने उपनयन एवं विवाह को छोड़कर अन्य संस्कार करना छोड़ दिया। आधुनिक काल में संस्कारों के न करने से प्रायश्चित्त का स्वरूप चौल तक के लिए प्रति संस्कार चार आना दान रह गया है तथा आठ आना दान चौल के लिए रह गया है। . अब हम संक्षेप में संस्कारों का विवेचन उपस्थित करेंगे। संस्कारों के विषय में गृह्यसूत्रों, धर्मसूत्रों, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति तथा अन्य स्मृतियों में सामग्रियां भरी पड़ी हैं, किन्तु रघुनन्दन के संस्कारतत्त्व, नीलकण्ठ के संस्कारमयूख, मित्र मिश्र के संस्कारप्रकाश, अनन्तदेव के संस्कारकोस्तुभ तथा गोपीनाथ के संस्काररत्नमाला नामक निबन्धों में भी प्रचुर सामग्री भरी पड़ी है। उपनयन एवं विवाह के विषय में विवेचन कुछ विस्तार के साथ होगा।
गर्भाधान अथर्ववेद का ५।२५वा कांड गर्भाधान के क्रिया-संस्कार से सम्बन्धित ज्ञात होता है। अथर्ववेद के इस अंश के तीसरे एवं पांचवें मन्त्र से, जो बृहदारण्यकोपनिषद् (६।४।२१) में उद्धृत हैं, गर्भाधान के कृत्य पर प्रकाश मिलता है। आश्वलायनगृह्यसूत्र (१।१३।१) में स्पष्ट वर्णन है कि उपनिषद् में गर्भलंमन (गर्भ धारण करना), पुंसवन (पुरुष बच्चा प्राप्त करना) एवं अनवलोभन (भ्रूण को आपत्तियों से बचाना) के विषय में कृत्य वर्णित हैं। सम्भवतः यह संकेत बृहदारण्यकोपनिषद् की ओर ही है।
. चतुर्थी-कर्म का कृत्य शांखायनगृह्यसूत्र (१।१८-१९) में इस प्रकार वर्णित है-विवाह के तीन रात उपरान्त, चौथी रात को पति अग्नि में पके हुए भोजन की आठ आहुतियाँ अग्नि, वायु, सूर्य (तीनों के लिए एक ही मन्त्र), अर्यमा, वरुण, पूषा (तीनों के लिए एक ही मन्त्र), प्रजापति (ऋग्वेद १०।१२१११० का मन्त्र) एवं (अग्नि) स्विष्टकृत् को देता है। इसके उपरान्त वह 'अध्यण्डा' की जड़ को कूटकर उसके जल को पत्नी की नाक में छिड़कता है (ऋग्वेद के १०८५।२१-२२ मन्त्रों के साथ प्रत्येक मन्त्र के उपरान्त 'स्वाहा' कहकर। तब वह पत्नी को छूता है। संभोग करते समय 'तू गन्धर्व विश्वावसु का मुख हो' कहता है। पुनः वह श्वास में, हे ! (पत्नी का नाम लेकर) वीर्य डालता हूँ' कहता है एवं यह भी कि "जिस प्रकार पृथिवी में अग्नि है....आदि....उसी प्रकार एक नर भ्रूण गर्भाशय में प्रवेश करे, उसी प्रकार जैसे तरकस में बाण घुसता है, यह इस मास के उपरान्त एक पुरुष उत्पन्न हो।"५ पारस्करगृह्यसूत्र (१।११) में भी यही विधि कही गयी है।
४. देखिए, मदनपारिजात (पु. ७५२ रुन्छप्रत्याम्नाय); संस्कारकौस्तुभ (पृष्ठ १४१-१४२ अन्य प्रत्यानावों के लिए)। आजकल उपनयन के समय देर में संस्कार-सम्पादन के लिए निम्न संकल्प है-अमुकशर्मणः मम मत्व गर्भावानपुंसवनसीमन्तोनयन-बातकर्मनामकरणानप्राशनचालान्तानां संस्काराणां कालातिपत्तिमनित (या गोपवनित) प्रत्यवायपरिहारा प्रतिसंस्कारं पारात्मकप्रायश्चित्तं चूराया अर्षकछात्मकं प्रतिकृच्छं गोमूल्यरजतनिमापारपादप्रत्यानाहाराहमाचरिष्ये ।।
५. मन्या-"मा ते योनि गर्भ एतु पुमान् बाण इवेषुषिम् । आ वीरोऽत्र जायतां पुत्रस्ते वशमास्यः ॥" अथर्वबेर ३३२३३२॥ यह हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र (१७।२५।१) में भी है।
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