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जन्म सम्बन्धी संस्कार
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मी होना चाहिए। तब पके हुए अन्न की आहुति प्रजापति को देकर उसे अपनी स्त्री के हृदय के पास का स्थल छूना चाहिए और प्रजापति से प्रार्थना करनी चाहिए -- अहो! आपके हृदय में क्या छिपा है, मैं उसे समझता हूँ... मेरे पुत्र को चोट न पहुँचे.....।"
उपर्युक्त विवेचन से यह कहा जा सकता है कि दूर्वा रस का स्त्री की नाक में डालना, उसके हृदय को स्पर्श करना एवं देवताओं को भ्रूण की रक्षा के लिए प्रसन्न करना आदि कर्म इस संस्कार के विशिष्ट लक्षण हैं।
शौनक - कारिका के अनुसार इस संस्कार को अनवलोभन कहा जाता है, जिसके अनुसार भ्रूण निर्विघ्न रहता है और गिरता नहीं । स्मृत्यर्थसार के अनुसार यह चौथे मास में किया जाता है । लघु-आश्वलायन ( ४।१-२ ) के अनुसार अनवलोमन एवं सीमन्तोन्नयन गर्भाधान के चौथे, छठे या आठवें मास में मनाये जाते हैं ।
शांखायनगृह्यसूत्र (१।२१।१-३) ने गर्भरक्षण कृत्य के विषय में लिखा है— चौथे मास में गर्भरक्षण कृत्य किया जाता है। पके हुए अन्न की छ: आहुतियाँ अग्नि में डाली जाती हैं और "ब्रह्मणाग्नि" ० नामक मन्त्रों (ऋक् १०।१६२ ) को "स्वाहा " के साथ उच्चारित किया जाता है और स्त्री के अंगों पर निर्मलीकृत घृत छिड़का जाता या चुपड़ा जाता है ।
आश्वलायनगृह्यसूत्र के अनुसार यह कृत्य प्रत्येक गर्भाधान के उपरान्त किया जाना चाहिए। किन्तु बहुत से ग्रन्थकारों ने इसे पुंसवन की भाँति एक ही बार करने को कहा है।
सीमन्तोन्नयन
इस संस्कार का वर्णन आश्वलायन ( १११४११ - ९ ), शांखायन ( १।२२), हिरण्यकेशीय (२1१), बौधायन ( १|१०), भारद्वाज (१।२१), गोभिल (२/७११-१२), खादिर ( २२ २४-२८), पारस्कर (१११५ ), काठक ( ३१।१ - ५ ) एवं वैखानस (३।१२) नामक गृह्यसूत्रों में पाया जाता है । 'सीमन्तोन्नयन' शब्द का अर्थ है " ( स्त्री के) केशों को ऊपर विभाजित करना।” याज्ञवल्क्य ( १।११) एवं व्यास (१।१८) ने इस संस्कार को केवल 'सीमन्त' की संज्ञा दी है, गोभिल (२/७/१), मानवगृह्यसूत्र (१।१२।२ ) एवं काठकगृह्यसूत्र ( ३१।१ ) ने इसे 'सीमन्तकरण' कहा है, किन्तु आपस्तम्बगृह्यसूत्र एवं भारद्वाजगृह्यसूत्र ( १।२१ ) ने इसे पुंसवन के पहले ही उल्लिखित किया है । आश्वलायन ने इसका वर्णन यों किया है-गर्भाधान के चौथे मास में सीमन्तोन्नयन ( कृत्य ) करना चाहिए। क्षय होते हुए चन्द्र की चतुर्दशी के दिन जब चन्द्र किसी पुरुष नक्षत्र के साथ हो ( या नारायण के अनुसार कम-से-कम जिस नक्षत्र का नाम पुल्लिंग में हो ) इसे करना चाहिए। तब अग्नि स्थापना की जाती है ( अर्थात् आज्यभागों की आहुतियों तक होम किया जाता है)। फिर अग्नि के पश्चिम बैल (वृष) का चर्म रख दिया जाता है, जिसकी गरदन पूर्व ओर और बाल ऊपर रहते हैं तथा आज्य ( निर्मलीकृत घृत) की आठ आहुतियाँ दी जाती हैं। संस्कारकर्ता की स्त्री चर्म पर बैठकर पति का हाथ पकड़ लेती है और मन्त्रोच्चारण किया जाता है, यथा अथर्ववेद ( ७।१७।२-३ )
७. नारायण ने व्याख्या की है कि जड़ी "दूर्वा" ही है, जो बहुत पुराने काल से प्रयोग में लायी जाती रही है। इस जड़ी का रस नाक में मौन रूप से या मन्त्रोच्चारण के साथ डाला जा सकता है। दोनों मन्त्र ये हैं-आ ते गर्भो योनिमेतु पुमान् बाण इवेषुधिम् । आ वीरो जायतां पुत्रस्ते दशमास्यः ॥ अग्निरंतु प्रथमो देवतानां सोऽस्यै प्रजां मुञ्चतु मृत्युपाशात् । तदयं राजा वरुणोऽनुमन्यतां यथेयं स्त्री पौत्रमघं न रोदात् ॥ इसमें प्रथम अथर्ववेद ( ३।२३।२) का और दूसरा आपस्तम्बीयमन्त्रपाठ (१।४।७) का है।
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