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भारम्भिक संस्कार गृह्यसूत्र (१११५) में भी पायी जाती है। स्मृतिचन्द्रिका ने विष्णु का हवाला देकर लिखा है कि प्रत्येक गर्मा धान के उपरान्त सीमन्तोन्नयन भी दुहराया जाना चाहिए।
कुल्लूक (मनु २।२७), स्मृतिचन्द्रिका (१४ पृ० १४) एवं अन्य ग्रन्थों के अनुसार गर्भाधान संस्कार होम के रूप में नहीं सम्पादित होता। धर्मसिन्धु का कहना है कि जब मासिक धर्म के प्रथम प्रकटीकरण पर गर्मायान हो जाता है तो संस्कार का सम्पादन गृह्य अग्नि में होना चाहिए, किन्तु दूसरे या कालान्तर वाले मासिक धर्म पर जब संभोग होता है तो होम नहीं होता। सस्कारकौस्तुभ (पृ० ५९) ने होम की व्यवस्था दी है और पके हुए भोजन की आहुति प्रजापति को तथा आज्य की सात आहुतियाँ अग्नि को देने को कहा है और तीन आहुतियाँ "विष्णुर्योनिम्" (ऋग्वेद १०।१८४-१-३) के साथ, तीन आहुतियाँ "नेजमेष०" (आपस्तम्ब मन्त्रपाठ १।१२।७-९) के साथ तथा एक "प्रजापतेन.” (ऋग्वेद १०।१२१११०) के साथ दी. जानी चाहिए।
पति की अनुपस्थिति में गर्भाधान को छोड़कर सभी संस्कार किसी सम्बन्धी द्वारा किये जा सकते हैं (संस्कारप्रकाश, पृ० १६५) ।
संस्कार एवं होम बहुत-सी धार्मिक विधियों एवं कृत्यों में होम आवश्यक माना गया है, अतः गृह्यसूत्रों ने होम का एक नमूना दिया है। हम यहाँ पर आश्वलायनगृह्यसूत्र (११३१) से एक उद्धरण उपस्थित करते हैं। कई गृह्यसूत्रों एवं धर्मशास्त्र-सम्बन्धी ग्रन्थों में कुछ मतभेद भी है।
(१) जहाँ यज्ञ करना हो वहाँ एक बाण की लम्बाई-चौड़ाई में भूमि को कुछ ऊँचा उठाकर (मिट्टी या बालू से) गोबर से लीप देना चाहिए (इसे स्थण्डिल कहते हैं)। इसके उपरान्त यज्ञ करनेवाले को स्थण्डिल पर (छ:) रेखाएँ खींच देनी चाहिएँ, जिनमें एक (स्थण्डिल के उस भाग से जहाँ अग्नि रखी जाती है) पश्चिम ओर हो किन्तु उत्तर को
ओर घूमी हुई होनी चाहिए, दो पूर्व की ओर किन्तु पहली रेखा के दोनों छोरों पर अलग-अलग, तीन (दोनों के ) मध्य में। इसके उपरान्त पवित्र स्थण्डिल पर जल छिड़कना चाहिए, उस पर अग्नि रखनी चाहिए, दो या तीन समिषाएँ अग्नि पर रख देनी चाहिएँ। इसके उपरान्त परिसमूहन (अग्नि के चतुर्दिकु झाड़-पोंछ ) करना चाहिए, तब परिस्तरण करना चाहिए अर्थात् चतुर्दिक् कुश बिछा देने चाहिए (पूर्व, दक्षिण, पश्चिम एवं उत्तर में)। इस प्रकार सभी कृत्य, यथा परिसमूहन, परिस्तरण आदि उत्तर में ही समाप्त होने चाहिए। तब यज्ञ करनेवाले को अग्नि के चतुर्दिक थोड़ा जल छिड़कना चाहिए। (२) तब दो कुशों से आज्य (घृत) को पवित्र किया जाता है। (३) बिना नोक टूटे दो कुश (जिनमें कोई और नवीन शाखा न निकली हो, और जो अँगूठे से लेकर चौथी अंगुली तक के बित्ते की नाप के हों) लेकर खुले हाय से आज्य को पवित्र करना चाहिए, पहले पश्चिम तब पूर्व में, और कहना चाहिए-“सविता की प्रेरणा से मैं इस बिना क्षत वाले पवित्र से तुम्हें पवित्र करता हूँ, वसु की किरणों से तुम्हें पवित्र करता हूँ।" एक बार इस मन्त्र को जोर से और दो बार मौन रूप से कहना चाहिए। (४) कुश के परिस्तरण का अग्नि के चतुर्दिक रखना आज्य-होम (वह होम जिसमें अग्नि को केवल आज्य की आहुति दी जाती है) में हो सकता है और नहीं भी हो सकता है। (५) उसी प्रकार पाकयज्ञों में दो आज्य-अंश दिये या नहीं भी दिये जा सकते हैं। (६) सभी पाकयशों में ब्रह्मा पुरोहित रखना भी वैकल्पिक है, किन्तु धन्वन्तरि एवं शूलगव यज्ञों में ब्रह्मा पुरोहित आवश्यक है। (७) तब यज्ञ करने वाला कहता है-"इस देवता को स्वाहा" ! (८) जब किसी विशिष्ट देवता की ओर निर्देश न हो तो अग्नि, इन्द्र, प्रजापति, विश्वे-देव (सभी देवता) एवं ब्रह्मा होम योग्य मान लिये जाते हैं। अन्त में स्विष्टकृत् अग्नि को आहुति दी जाती है।"
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