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धर्मशास्त्र का इतिहास
शांखायन गृह्यसूत्र (१।७) में होम - विधि ( १।७।६-७ ) कुछ अधिक विस्तृत एवं महत्वपूर्ण अन्तरों के साथ पायी जाती है। यज्ञ करनेवाला वेदी के मध्य में एक रेखा दक्षिण से उत्तर की ओर खींचता है, केवल तीन रेखाएँ ऊपर खींची जाती हैं, जिनमें एक इसके दक्षिण, एक मध्य में तथा तीसरी उत्तर में ( अर्थात् केवल ४ रेखाएँ, आश्वलायन की माँति ६ रेखाएँ नहीं ) । शांखायन ( १।९।६-७ ) के अनुसार ब्रह्मा पुरोहित का आसन स्थण्डिल के दक्षिण में होता है और उन्हें फूलों से सम्मानित किया जाता है। इसी प्रकार कुछ अन्य अन्तर भी हैं। पारस्करगृह्यसूत्र ( १ ।१ ) एवं खादिरगृह्यसूत्र (१/२) में बहुत ही संक्षेप में होम का नमूना दिया हुआ है । गोभिल (१।१।९ ११ ११५।१३ २०, १४७९, १/८/२१ ) एवं हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र (१।१/९ - १ । ३।७ ) में होम विधि बड़े विस्तार से वर्णित है। आपस्तम्बगृह्यसूत्र : में सभी प्रकार के होमों में पायी जाने वाली विधि का वर्णन विस्तार के साथ किया गया है।
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प्रमुख चार ऋत्विकों में केवल ब्रह्मा को उन्हीं यज्ञों में महत्ता दी गयी है जो गृह्याग्नि में सम्पादित होते हैं और जिन्हें पाकयज्ञ कहा जाता है और जहाँ होता ही यजमान रहता है। होम की अन्य बातों का अनुक्रम यों है-उपलेपन ( गोबर से लीपना), बालू या मिट्टी से स्थण्डिल को सँवारना, एक समिधा से स्थण्डिल पर रेखाएं खींचना, समिधा को रेखाओं पर पूर्व ओर नोक करके रखना, स्थण्डिल के उत्तर और पूर्व में पानी छिड़कना, स्थण्डिल के बाहर रेखा खींचनेवाली समिधा को उत्तर-पूर्व के कोण में रखना होता द्वारा आचमन करना होता के सामने स्थण्डिल पर अग्नि (घर्षण से उत्पन्न कर, या किसी श्रोत्रिय से माँगकर या किसी से भी माँगकर ) रखना, दो या तीन समिधाएँ अग्नि पर रखना, इध्म (१५ समिधाएँ ) एवं कुशों का एक गुच्छ तैयार रखना। इसके उपरान्त परिसमूहन (उत्तर-पूर्व ओर से जलपूर्ण हाथ द्वारा अग्नि के चतुर्दिक् पोंछना ), तब परिस्तरण ( वेदी के चतुर्दिक् प्रथम पूर्व, फिर दक्षिण, तब पश्चिम और तब उत्तर की ओर से कुश फैलाना ), तब मौन पर्युक्षण ( अग्नि के चतुर्दिक् जल छिड़कना, प्रत्येक बार पृथक्-पृथक् जल ग्रहण करके), तब अपः - प्रणयन ( अग्नि के उत्तर कांस्य वा मिट्टी के बरतन में जल ले जाना ), तब आज्योत्पवन (दो कुशों की नोक से एक बार मन्त्र से और दो बार मौन रूप से आज्य को पवित्र करना ), तब आज्य के दो आधार (लगातार धार गिराना) तथा दो आहुति देना । तदुपरान्त सूत्रों में निर्दिष्ट ढंग से प्रमुख हवन किया जाता है और अन्त में स्विष्टकृत् अग्नि को अन्तिम आहुति दी जाती है। ओम् से आरम्भ कर एवं स्वाहा से अन्त कर मन्त्र दुहराकर आहुतियाँ दी जाती हैं और कहा जाता है कि "यह इस या उस देवता के लिए है, मेरे लिए नहीं ।"
आश्वलायनगृह्यसूत्र (१।४) ने जोड़ा है कि चौल, उपनयन, गोदान एवं विवाह में ऋग्वेद (९।६६।१०-१२ ) के तीन मन्त्रों के साथ आज्य की चार आहुतियाँ दी जाती हैं, यथा— अग्नि, तू जीवन को पवित्र बनाता है.... आदि । मन्त्र के स्थान पर व्याहृतियों या दोनों, अर्थात् वैदिक मन्त्रों एवं व्याहृतियों (भूः स्वाहा, भुव: स्वाहा, स्वः स्वाहा, भूर्भुव: स्व: स्वाहा ) का व्यवहार किया जा सकता है, अर्थात् आरु आहुतियां दी जाती हैं ।
आधुनिक काल में स्थण्डिल पर पानी छिड़कने के उपरान्त उस पर अग्नि रखी जाती है और संस्कारों के अनुसार अग्नि के विभिन्न नाम माने जाते हैं, यथा उपनयन एवं विवाह में उसे क्रम से समुद्भव एवं योजक कहा जाता है। तब ईंधन पर पवित्र जल छिड़ककर उसे अग्नि पर रखा जाता है और उसे ज्वाला में परिवर्तित करके प्रार्थना की जाती है, यथा “अग्ने वैश्वानर शाण्डिल्यगोत्र मेषध्वज, मम सम्मुखो वरदो भव ।" इसके उपरान्त परिसमूहन एवं अन्य ऊपर वर्णित क्रियाएँ चलती हैं।
जिस प्रकार अधिकांश गृह्य कृत्यों में होम आवश्यक माना जाता है, उसी प्रकार प्रायः सभी कृत्यों में कुछ बातें एक सी पायी जाती हैं। आचमन, प्राणायाम, देश-काल की ओर संकेत एवं संकल्प सबमें पाये जाते हैं। इसके उपरान्त मध्य काल के वर्मशास्त्र-ग्रन्थों के अनुसार, गणपति-पूजन, पुण्याहवाचन, मातृका पूजन एवं नान्दीश्राद्ध
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