________________
१५०
धर्मशास्त्र का इतिहास
--
--
-
-
-
ब्राह्मण और कृषि--क्या ब्राह्मण कृषि कर सकते थे? धर्मशास्त्र-साहित्य में इस सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है। वैदिक साहित्य में पूरी छूट है। वहाँ एक स्थान पर आया है--जुआ मत खेलो, कृषि में लगो, मेरे वचनों पर ध्यान देकर धन का आनन्द लो, कृषि में गायें हैं, तुम्हारी स्त्री है...आदि (जुआरी का गीत)। भूमि, हल-साझा, भूमिकर्षण के विषय में पर्याप्त संकेत हैं (ऋ० १०।१०१।३, तैत्तिरीय संहिता २।५।५, वाजसनेयी संहिता १२॥६७, ऋ० ११११०१५, १११७६।२, १०।११७।७)। बौधायनधर्मसूत्र का कहना है कि वेदाध्ययन से कृषि का नाश तथा कृषिप्रेम से वेदाध्ययन का नाश होता है। जो दोनों के लिए समर्थ हों, दोनों करें, जो दोनों न कर सकें, उन्हें कृषि त्याग
हिए। वौधायन ने पुनः कहा है--ब्राह्मण को प्रातःकाल के भोजन के पूर्व कृषि-कार्य करना चाहिए, उसे ऐसे बैलों को, जिनकी नाक न छिदी हो, जिनके अण्डकोष न निकाल लिये गये हों, जोतना या बार-बार उसकाना चाहिए और तीखी चर्मभेदिका से उन्हें खोदना न चाहिए। यही बात वसिष्ठ धर्म सूत्र में भी कुछ अन्तर (भेद) से पायी जाती है (२।३२-३४) । वाजसनेयी संहिता भी यहीं कहती है (१२।७१) । मनु (१०८३-८४) ने लिखा है कि यदि ब्राह्मण या क्षत्रिय को अपनी जीविका के प्रश्न को लेकर वैश्य-वृत्ति करनी ही पड़े, तो उन्हें कृषि नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इससे जीवों को पीड़ा होती है और यह दूसरों (मजदूर, बैल आदि) पर आधारित है। मनु ने कृषि को प्रमृत' (जीव-हानि में अधिक प्रसिद्ध) कहा है (मनु ४१५)। पराशर ने ब्राह्मणों के लिए कृषि-कर्म वजित नहीं माना है, किन्तु उन्होंने बहुत-से नियन्त्रण लगा दिये हैं (२।२-४, ७, १४)।" इस विषय में अपरार्क वृद्ध-हारीत आदि के वचन भी स्मरणीय हैं । वृद्ध-हारीत (७।१७९ एवं १८२) ने कृषिकर्म सबके (सव वर्गों के लिए उचित माना है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कृषि के विषय में आचार्यों के मत विभिन्न युगों में विभिन्न रहे हैं।
विक्रय एवं विनिमय-हमने ऊपर देख लिया है कि आपत्काल में ब्राह्मण वाणिज्य कर सकता है। किन्तु वस्तु-विक्रय के सम्बन्ध में बहुत-सारे नियन्त्रण थे। गौतम (७८-१४) ने सुगन्धित वस्तुएँ (चन्दन आदि), द्रव पदार्थ (तेल, घी आदि), पका भोजन, तिल, पटसन (सन या पटगन से निर्मित वस्तुएँ, यथा बोरा आदि), क्षौम (सन के बने हुए वस्त्र), मुगचर्म, रँगा एवं स्वच्छ किया हुआ वस्त्र, दूध एवं इससे निर्मित वस्तुएँ (घी, मक्खन, दही आदि) कन्दमूल, पुष्प, फल, जड़ी-बूटी (ओषधि के रूप में), मधु, मांस, घास, जल, विषैली ओषधियाँ (अफीम, विप),
२१. अक्षर्मा दीव्यः कृषिमित्कृषस्व विते रमस्व बहु मन्यमानः। तत्र गावः कितव तत्र जाया तन्मे विचष्टे सवितायमर्यः॥ ऋग्वेद १०॥३४।१३। ।
२२. वेदः कृषिविनाशाय कृषिवेदविनाशिनी। शक्तिमानुभयं कुर्यादशक्तस्तु कृषि त्यजेत् ॥बी० ११५।१०१; प्राक् प्रातराशात्कर्षी स्यात् । अस्यूतनासिकाभ्यां समुष्काभ्यामतुदन्नारया मुहुर्मुहुरभ्युच्छन्यदयन् । बौ० २।२१८२-८३ ।
२३. षट्कर्मनिरतो विप्रः कृषिकर्माणि कारयेत् । हलमष्टगवं धयं षड्गवं मध्यमं स्मृतम् । चतुर्गवं नृशंसानां विगवं वृषघातिनाम् ॥ पराशर २१२, ब्राह्मणस्तु कृषि कृत्वा महादोषमवाप्नुयात् । राज्ञे दत्त्वा तु षड्भागं देवानां
विशकम् । विप्राणां त्रिशकं भागं कृषिकर्ता न लिप्यते॥ पराशर २२१२-१३। अपराक ने इस अन्तिम श्लोक को बृहस्पति का कहा है। “अष्टागवं धयंहलम्" अत्रि (२२२-२२३), आपस्तम्ब (१२२२-२३), हारीत में भी पाया जाता है।
२४. कृषिस्तु सर्ववर्णानां सामान्यो धर्म उच्यते।.. कृषिभूतिः पाशुपाल्यं सर्वेषां न निषिध्यन्ते। वृद्ध-हारीत । ७.१७९, १८२।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org