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धर्मशास्त्र का तिहास विनिमय के विषय में उपर्युक्त नियमों के समान नियम बनाये गये हैं। वजित वस्तुओं का विनिमय भी यथासम्भव वर्जित माना गया है, किन्तु कुछ विशिष्ट छूटें भी हैं, यथा भोजन का भोजन से, दासों का दासों से, सुगन्धित वस्तुओं का सुगन्धित वस्तुओं से, एक प्रकार का ज्ञान दूसरे प्रकार के ज्ञान से (आप० ११७।२०११४-१५)। इसी प्रकार कुछ उलट-फेर एवं नयी वस्तुओं को सम्मिलित करके अन्य आचार्यों ने भी नियम दिये हैं, यथा गौतम (७।१६-२१), मनु (१०१९४), वसिष्ठ (२।३७-३९)।
___ आपत्काल में जीविका-साधन के लिए मनु (१०।११६) ने दस उपक्रम बतलाये हैं-विद्या, कलाएँ एवं शिल्प, पारिश्रमिक पर कार्य, नौकरी, पशु-पालन, वस्तु-विक्रय, कृषि, सन्तोष, भिक्षा एवं कुसीद (ब्याज पर धन देना)। इनमें सात का वर्णन याज्ञवल्क्य ने भी किया है, किन्तु उन्होंने कुछ अन्य कार्य भी सम्मिलित कर दिये हैं, यथा गाड़ी हाँकना, पर्वत (पहाड़ों की घासों एवं लकड़ियों को बेचना), जल से भरा देश, वृक्ष, झाड़-झंखाड़, राजा (राजा से मिक्षा माँगना)। चण्डेश्वर के गृहस्थरत्नाकर में उद्धृत छागलेय के अनुसार अनावृष्टि-काल में नौ प्रकार के जीविका-साधन हैं;" गाड़ी, तरकारियों का खेत, गौएँ, मछली पकड़ना, आस्यन्दन (थोड़े ही श्रम से अपनी जीविका चलाना), वन, जल से भरा देश, वृक्ष एवं झाड़-झंखाड़, पर्वत तथा राजा। नारद (ऋणादान, ५०५५) के मतानुसार तीन प्रकार के जीविक्त-साधन सभी के लिए समान थे--(१) पैतृक धन, (२) मित्रता या स्नेह का दान तथा (३) (विवाह के समय) जो स्त्री के साथ मिले। नारद के अनुसार तीनों वर्गों में प्रत्येक के लिए तीन विशिष्ट जीविकासाधन थे। ब्राह्मणों के लिए-(१) दान-ग्रहण, (२) पौरोहित्य की दक्षिणा एवं (३) शिक्षण-शुल्क ; क्षत्रियों के लिए (१) युद्ध की लूट, (२) कर एवं (३) न्याय-कार्य से उत्पन्न दण्ड-धन; तथा वैश्यों के लिए (१) कृषि, (२) पशु-पालन एवं (३) व्यापार । नारद (ऋणादान, ४४-४७) ने धन को शुक्ल (श्वेत, विशुद्ध), शबल (कृष्ण-श्वेत, मिथित) एवं कृष्ण में और इनमें प्रत्येक को सात-सात भागों में बाँटा है। विष्णुधर्मसूत्र (अध्याय,५८) ने भी इसी तरह तीन प्रकार बताये हैं। इसके अनुसार (१) पैतृक धन, स्नेह-दान एवं पत्नी के साथ आया हुआ धन श्वेत (विशुद्ध) है, (२) अपने वर्ग से निम्न वर्ण के व्यवसाय से उत्पन्न धन, घूस से या वजित वस्तुओं के विक्रय से उत्पन्न धन या उपकार करने से उत्पन्न धन शबल है, तथा (३) निम्नत र वर्गों के व्यवसाय से उत्पन्न धन. जुआ, चोरी, हिंसा या छल से उत्पन्न धन कृष्ण धन है। बौधायन (३।११५-६) ने १० प्रकार की वृत्तियाँ बतायी हैं और उन्हें ३।२ में समझाया है। मनु (४१४-६) ने ५ प्रकार वणित किये हैं--(१) ऋत (अर्थात् खेत में गिरे हुए अन्न पर जीवित रहना), (२) अमृत (जो बिना माँगे मिले), (३) मृत (भिक्षा से प्राप्त), (४) प्रमृत (कृषि) एवं (५) सत्यानृत (वस्तु-विक्रय)। मनु ने श्ववृत्ति (नौकरी, जो कुत्ते (श्वा) के जीवन के समान है) का विरोध किया है। मनु (४९) ने यह भी लिखा है कि कुछ ब्राह्मणों के जीविका-साधन छः हैं (यथा अध्यापन, याजन, प्रतिग्रह, कृषि, पशुपालन एवं व्यापार), कुछ के केवल तीन हैं (यथा प्रथम तीन), कुछ के केवल दो (यथा याजन एवं अध्यापन) और कुछ का केवल एक अर्थात् अध्यापन ।
२८. अविहितश्चंतेषां मिथो विनिमयः। अन्नेन चानस्य मनुष्याणां च मनुष्यं रसानां च रसर्गन्धानां च गन्धविद्यया च विद्यानाम् । आप० २७।२०।१४-१५।
२९. विद्या शिल्पं भूतिः सेवा गोरक्ष्यं विपणिः कृषिः। धृतिभक्ष्यं कुसीदं च दश जीवनहेतवः॥ मनु १०।११६ । ३०. कृषिः शिल्पं भृतिविद्या कुसीवं शकटं गिरिः। सेवानूपं नृपो भक्षमापत्तौ जीवनानि तु॥ याज्ञ० ३।४२।
३१. शकटं शाकिनी गावो जालमस्यन्दनं वनम् । अनूपं पर्वतो राजा दुभिक्षे नव वृत्तयः॥ गृह० र०, पृ० ४४९ में छागलेय।
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