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वों के कर्तव्य, अयोग्यताएँ एवं विशेषाधिकार
भागवत पुराण (१।४।२५) में आया है कि तीनों वेदों को स्त्रियां, शूद्र एवं कुब्राह्मण (जो केवल जन्म मात्र से ब्राह्मण हैं) नहीं पढ़ सकते, अतः व्यास ने उन पर दया करके भारत की गाथा लिखी है। शूद्रकमलाकर (पृ० १३१४) में कई उदाहरण आये हैं, जिनसे यह स्पष्ट होता है कि शूद्र स्मृतियों एवं पुराणों को स्वतः नहीं पढ़ सकते थे। स्वयं मनु (२०१६) ने मनुस्मृति को केवल द्विजों द्वारा सुनने को कह दिया है। कल्पतरु तथा कुछ अन्य अन्थों ने शूद्रों के लिए पुराणाध्ययन वैधानिक माना है । वेदान्तसूत्र (१।३।३८) की व्याख्या में शंकराचार्य ने लिखा है कि शूद्रों को ब्रह्मविद्या का अधिकार नहीं है, किन्तु वे (विदुर एवं धर्मव्याध की भांति, जैसा कि महाभारत में आया है) मोक्ष (सम्यक् ज्ञान का फल) प्राप्त कर सकते हैं। कुछ निबन्धों में एक स्मृति का उद्धरण आया है कि शूद्र वाजसनेयी हैं। किन्तु इसका तात्पर्य यह है कि वे वाजसनेयी शाखा के गृह्यसूत्र की विधि का अनुसरण कर सकते हैं और ब्राह्मण उनके लिए मन्त्रोच्चारण कर देगा।
(२) शूद्र पवित्र अग्नियां नहीं जला सकते थे, और न वैदिक यज्ञ कर सकते थे। जैमिनि (१२३२५-३८) ने इस बात की चर्चा की है। किन्तु बाहरि नामक एक प्राचीन आचार्य ने लिखा है कि शूद्र भी वैदिक यज्ञ कर सकते हैं।" भारद्वाज-श्रौतसूत्र (५।२।८) ने कुछ आचार्यों का यह मत प्रकाशित किया है कि शूद्र भी तीनों वैदिक अग्नि जला सकते हैं। कात्यायन-श्रौतसूत्र (१।४।५) ने लिखा है कि केवल लंगड़े-लूले, वेदज्ञान-विहीन, नपुंसक एवं शूद्रों को छोड़कर सभी यज्ञ कर सकते हैं। किन्तु इस सूत्र के टीकाकार ने लिखा है कि कुछ वैदिक वाक्यों से स्पष्ट मलकता है कि शूद्रों को भी बैदिक क्रिया-संस्कार करने का अधिकार था (शतपथ ब्राह्मण १।१।४।१२, १३८॥३॥११) । किन्तु कात्यायनश्रौत० (११११६) के टीकाकार ने 'शूद्र' शब्द को रथकार जाति (याश० १२९१) के अर्थ में प्रयुक्त माना है।
शूद्र वैदिक क्रियाएँ नहीं कर सकते थे, किन्तु वे पूर्त धर्म कर सकते थे, अर्थात् कूप, तालाब, मन्दिर, वाटिकाओं आदि का निर्माण तथा ग्रहण आदि अवसरों पर भोजन-दान आदि कर सकते थे। वे प्रति दिन वाले पंच महायज्ञ साधारण अग्नि में कर सकते थे,श्राद्ध भी कर सकते थे, वे देवताओं को 'नमः' शब्द के साथ संबोधन कर ध्यान कर सकते थे। वे "अग्नये स्वाहा" नहीं कह सकते थे। मनु (१०।१२७) के अनुसार उनके सारे क्रिया-संस्कार बिना वैदिक मन्त्रों के हो सकते हैं। कुछ लोगों के मतानुसार शूद्र वैवाहिक अग्नि नहीं रख सकते थे (मनु ३॥६७ एवं याज्ञ० १९७), किन्तु मेधातिथि, मिताक्षरा (याश० १११३१) एवं मदनपारिजात (पृ० ३१) का कहना है कि वे साधारण अग्नि में आहुति दे सकते हैं, विधिवत् उत्पन्न वैवाहिक अग्नि में नहीं । सभी लोग, यहाँ तक कि शूद्र एवं चाण्डाल १३ अक्षरों वाला राम-मन्त्र (श्री राम जय राम जय जय राम) एवं ५ अक्षरों वाला शिव-मन्त्र (नमः शिवाय) उच्चारित कर सकते थे, किन्तु द्विजाति लोग ६ अक्षरों वाला शिव-मन्त्र (ऊँ नमः शिवाय) कह सकते थे। इस सम्बन्ध में शूद्र
६४. स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयीन श्रुतिगोचरा। इति भारतमाख्यानं मुनिना कृपया कृतम् ॥ भागवत ४२५ देखिए, त्रिकालमण्डन ४।२८, ब्रह्मव्याकरणं कृत्वा हुत्वा वै पावके हविः। शालग्रामशिला स्पृष्ट्वा भूटो गच्छत्ययोगतिम् ॥
६५. निमित्तार्थेन बाररिस्तस्मात्सर्वाधिकारं स्यात् । जैमिनि १॥३॥२७॥
६६. इष्टापूतों विजातीनां सामान्यौ धर्मसाधनौ। अधिकारी भवेन्यूरः पूर्तधर्म न वैदिके। अनि ४६; लघुशंक ६ अपराकं पृ. २४; वापीकूपतडागादि देवतायतनानि च। अन्नप्रदानमारामः पूर्तमित्यभिधीयते ॥ महोपरागे यहानं सूर्यसंकमणेषु च। द्वावश्यादी च यद्दानं पूर्तमित्यभिधीयते। पहला पच महाभारत से तथा दूसरा जातुकर्म से लिया गया है।
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