________________
वों के कर्तव्य, अयोग्यताएँ एवं विशेषाधिकार
१६५ नाखून, केश आदि स्वच्छ होने चाहिए। शूद्र द्वारा उपस्थापित भोजन करने या न करने के विषय में मनु के वचन (४२११ एवं २२३) अवलोकनीय हैं। बौधायनधर्मसूत्र (२।२।१) ने वृषल (शूद्र) के भोजन को ब्राह्मण के लिए वर्जित माना है। पके हुए भोजन के विषय में क्रमशः नियम और कड़े होते चले गये। शंखस्मृति (१३॥४) ने शूद्रों के भोजन पर पलते हुए ब्राह्मणों को पंक्तिदूषक कहा है। पराशर (११११३) ने आदेश दिया है कि ब्राह्मण किसी शूद्र से घी, तेल, दूध, गुड़ या इनसे बनी हुई वस्तुएँ ग्रहण कर सकता है, किन्तु उन्हें वह नदी के किनारे ही खाये, शूद्र के घर में नहीं। पराशरमाधवीय ने इसकी व्याख्या में लिखा है कि ऐसा तभी सम्भव है जब कि ब्राह्मण यात्रा में हो और थककर चूर हो गया हो या किसी अन्य उच्च वर्ण से कुछ प्राप्त न हो सके (२।१)। हरदत्त (गौतम १६६) एवं अपरार्क (याश० १२१६८) ने भी विपत्ति-काल में शूद्र-प्रदत्त भोजन को वजित नहीं माना है।
(९) वही शूद्र, जो पहले ब्राह्मण के घर में रसोइया हो सकता था और ब्राह्मण उसका पकाया हुआ भोजन कर सकता था, क्रमशः अछूत होता चला गया। अनुशासनपर्व में आया है कि यूद्र ब्राह्मण की सेवा जलती हुई अग्नि के समान दूर से करे, किन्तु क्षत्रिय एवं वैश्य स्पर्श करके सेवा कर सकते हैं।' शद्र का स्पर्श हो जाने पर स्नान, आचमन, प्राणायाम, तप आदि से ही शुद्ध हुआ जा सकता था (अपरार्क, पृ० ११९६)। गृह्यसूत्रों में आया है कि मधुपर्क देते समय अतिथि के पैर को (भले ही वह स्नातक ब्राह्मण ही क्यों न हो) शूद्र पुरुष या नारी घो सकती है (हिरण्यकेशिगृह्म० १।१२।१८-२०)। लगता है, गृह्यसूत्रों के काल में बन्धन बहुत कड़े नहीं थे। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२१६९-१०) में भी यही बात पायी जाती है।
(१०) शूद्र चारों आश्रमों में केवल गृहस्थाश्रम ही ग्रहण कर सकता है, क्योंकि उसके लिए वेदाध्ययन वर्जित है (अनुशासनपर्व १६५।१०)। शान्तिपर्व (६३।१२-१४) में आया है कि जिस शूद्र ने (उच्च वर्गों की) सेवा की है, जिसने अपना धर्म निबाहा है, जिसे सन्तान उत्पन्न हुई है, जिसका जीवन अल्प रह गया है या जो दसवें स्तर में अर्थात् ९० वर्ष से ऊपर अवस्था का हो गया है, वह चौथे आश्रम को छोड़कर सभी आश्रमों का फल प्राप्त कर सकता है।" मेधातिथि ने मनु (६३९७) की व्याख्या में इन शब्दों की विवेचना की है और कहा है कि शूद्र ब्राह्मण की सेवा कर एवं गृहस्थाश्रम में रहते हुए सन्तानोत्पत्ति करके मोक्ष को छोड़कर सभी कुछ प्राप्त कर सकता है।
(११) शूद्र-जीवन क्षुद्र समझा जाता था। याज्ञवल्क्य (३।२३६) एवं मनु (१११६६)) ने स्त्री, शूद्र, वैश्य एवं क्षत्रिय को मार डालना उपपातक माना है, किन्तु इसके लिए जो प्रायश्चित्त एवं दान की व्यवस्था बतायी गयी है, उससे स्पष्ट है कि शूद-जीवन नगण्य-सा था। क्षत्रिय को मारने पर प्रायश्चित्त था छः वर्ष का ब्रह्मचर्य, १००० गायों एवं एक बैल का दान। वैश्य को मारने पर तीन वर्ष का ब्रह्मचर्य, १०० गायों एवं एक बैल का दान था, किन्तु शूद्र को मारने पर प्रायश्चित्त था केवल एक वर्ष का ब्रह्मचर्य एवं १० गायों तथा एक बैल का दान। यही बात गौतम (२२२१४-१६), मनु (११।१२६-१३०) एवं याज्ञवल्क्य (३।२६६-२६७) में भी पायी
६७. दूरान्छूनेणोपचों ब्राह्मणोऽग्निरिव ज्वलन्। संस्पृश्य परिचर्यस्तु वैश्येन क्षत्रियेण च ॥ अनुशासनपर्व ५९॥३३॥
६८. शुभूपोः कृतकार्यस्य कृतसन्तानकर्मणः । अभ्यनुज्ञातराजस्य शूबस्य जगतीपते ॥ अल्पान्तरगतस्यापि बशधर्मगतस्य वा। आश्रमा विहिताः सर्वे वर्जयित्वा निरामिषम् ॥ शान्तिपर्व ६३।१२-१४; सर्वे आश्रमास्तु न कर्तव्याः कि तर्हि शुभूषयापत्योत्पावनेन च सर्वाश्रमफलं लभते विजातीन् शुभूषमाणो गार्हस्थ्येन सर्वाश्रमफलं लभते परिवाजकफलं मोसं वर्जयित्वा। मेषातिथि (मनु ६९७)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org