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वर्गों के कर्तव्य, अयोग्यताएँ एवं विशेषाधिकार
१४९ आपस्तम्ब ने कहा है कि परीक्षा के लिए भी ब्राह्मण को आयुध नहीं ग्रहण करना चाहिए। आपत्काल में क्षत्रियवृत्ति करना अनुचित नहीं है (गौतम) । बौधायन ने कहा है कि गौओं एवं ब्राह्मणों की रक्षा करने एवं वर्णसंकरता - रोकने के लिए ब्राह्मण एवं वैश्य भी आयुध ग्रहण कर सकते हैं। वर्णाश्रमधर्म पर जब आततायियों का आक्रमण हो, युद्धकाल में गड़बड़ी हो तब तथा आपत्काल में गायों, नारियों, ब्राह्मणों की रक्षा के लिए ब्राह्मणों को अस्त्र-शस्त्र ग्रहण करना चाहिए (मनु ८।३४८-३४९) । महाभारत में द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा (द्रोण के पुत्र), कृपाचार्य (अश्वत्थामा के मामा) नामक योद्धा ब्राह्मण थ। शल्यपर्व (६५।४२) के अनुसार राजा की आज्ञा से ब्राह्मण को युद्ध करना चाहिए।" जब समाज के विधान टुट जाय, दस्यु, चोर, डाकू आदि बढ़ जायँ तो सभी वर्गों को आयुध ग्रहण करना चाहिए (शान्तिपर्व ७८।१८)।
अति प्राचीन काल से ही ब्राह्मण सेनापतियों एवं राजकुलस्थापकों के रूप में पाये गये हैं। सेनापति पुष्यमित्र शुंग ब्राह्मण ही था, जिसने अन्तिम मौर्य राज बृहद्रथ से राज्य छीन लिया था (ईसा पूर्व १८४ ई०)। शुंगों के उपरान्त काण्वायनों ने राज्य किया, जिनका संस्थापक था बासुदेव नामक ब्राह्मण जो अन्तिम शुंगराज का मन्त्री था (ईसा पूर्व ७२ ई०)। कदम्बों का संस्थापक मयूरशर्मा ब्राह्मण ही था (काकुस्थवर्मा का तालगुण्ड नामक स्तम्भाभिलेख)। मराठों के पेशवा ब्राह्मण ही थे। मराठा-इतिहास में बहुत-से ब्राह्मण सेनापति एवं सेनानी हुए हैं।
यद्यति ब्राह्मण आपत्काल में वैश्य-वृत्ति कर सकता था, किन्तु कृषि, वाणिज्य, पशुपालन, ब्याज पर धन देने आदि के सम्बन्ध में कई एक नियंत्रण थे। गौतम (१०।५-६) ने ब्राह्मण को अपने तथा अपने कुटुम्ब के रक्षण के लिए कृपि, क्रय-विक्रय, ऋण-लेन-देन करने की छूट दी है, किन्तु एक नियन्त्रण पर कि वह ऐसा स्वयं न करके दूसरों द्वारा सम्पादित कराय। वसिष्ठधर्मसूत्र (२०४०) में आया है कि ब्राह्मण एवं क्षत्रिय अधिक व्याज पर धन का लेन-देन न करें, क्योंकि ब्याज पर धन देना ब्रह्म हत्या के सदृश है। मन (१०।११७) ने भी ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों को कुसीद (ब्याज पर धन देने के व्यवसाय) से दूर रहने को कहा है, किन्तु जो लोग निकृष्ट कार्य करते हैं, उनसे थोड़ा ब्याज लेने के लिए उन्हें छूट दे दी है। नारद (ऋणादान, १११) ने ब्राह्मणों के लिए कुसीद सर्वथा त्याज्य माना है, यहाँ तक कि बड़ी-से-बड़ी विपत्ति के समय में भी। आपस्तम्ब (१।९।२७।१०) ने कुसीद में प्रवृत्त ब्राह्मण के लिए प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी है।
ब्राह्मणों के ऊपर जो उपर्युक्त नियन्त्रण लगे थे, उनका तात्पर्य था उन्हें सरल जीवन की ओर ले जाना, जिससे वे अपने प्राचीन माहित्य एवं संस्कृति का सुचारू रूप से अध्ययन, रक्षण एवं परिवर्धन कर सकें । इतना ही नहीं, उन्हें स्वार्थ-बुद्धि, अकरुण व्यवहार एवं अनुपल धन-संचय की प्रवृत्तियों से दूर भी तो रह्ना था।
माददीत। गौतम (१२५); अथाप्युदाहरन्ति । गवार्थे ब्राह्मणार्थ वा. वर्णानां वापि संकरे। गृलायातां विप्रविशौ शस्त्रं धर्मव्यपेक्षया॥ बौ० (२२२६८०); आत्मत्राणे वर्णसंवर्गे ब्राह्मणवैश्यौ शस्त्रमाददीयाताम्। वसिष्ठ (३।२४)।
१९. राज्ञो नियोगाद योद्धव्यं ब्राह्मणेन विशेषतः । वतता अधर्मेण ह्येवं धर्मविदो विदुः॥ शल्यपर्व ६५।४।
२०. कृषिवाणिज्ये वाऽस्वयंकृते। कुसीवं च। गौ० १०५।६; ब्राह्मणराजन्यौ वाधुषो न दद्याताम् अथाप्युदाहरन्ति । समर्घ धान्यमुद्धृत्य महर्घ यः प्रयच्छति। स वै वाधुषिको नाम ब्रह्मवादिषु गहितः। ब्रह्महत्यां च वृद्धि च तुलया समतोलयत् । अतिष्ठद् भ्रूणहा कोट्यां वाधुषिः समकम्पत ॥ वसिष्ठ २४०। देखिए बौधायन१।५।९३-९४ । आपत्स्यपि हि कष्टासु ब्राह्मणस्य न बाधुषम् । नारद (ऋणादान, ५।१११)। अनार्या शयने विभ्रद् ददद् द्धि कषायपः। अब्राह्मण इव वन्वित्या तृणेष्वासीत पृष्ठतम् ॥ आपस्तम्ब (१।९।२७।१०)।
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