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वर्ण तथा जात्युत्कर्ष एवं जात्यपकर्ष, श्रेणी, पूग, संघ, वात आदि
१२३ यदि कोई क्षत्रिय वैश्य नारी से विवाहित होता है तो उससे उत्पन्न कन्या माहिष्या कहलायगी और जात्युत्कर्ष पांचवीं पीढ़ी में होगा। यदि कोई वैश्य शूद्र से विवाह करे तो उससे उत्पन्न कन्या करणी कहलायेगी और यदि वह वैश्य से विवाह करे तो पांचवीं पीढ़ी में जात्युत्कर्ष हो जायगा। चारों वर्गों के लिए कुछ-न-कुछ विशिष्ट वृत्तियां या अपने व्यवसाय निर्धारित हैं । आपत्काल में एक वर्ण अपने निकट नीचे के वर्ण का व्यवसाय कर सकता है, किन्तु अपने से ऊँचे वर्ण का व्यवसाय वर्जित है। किन्तु आपत्ति के हट जाने पर पुनः अपनी वृत्ति में लौट आना चाहिए। इस विषय में हम वसिष्ठ (२ ।१३-२३), विष्णुधर्मसूत्र (२।१५), याज्ञवल्क्य (११११८-१२०), गौतम (१०।१-७) आदि को देख सकते हैं। यदि कोई ब्राह्मण शूद्र की वृत्ति अपनाये और उससे उत्पन्न लड़का भी वैसा ही करे तो इस ऋम से आगे चलकर सातवी पीढ़ी की सन्तान शूद्र हो जायगी। यदि कोई ब्राह्मण किसी वैश्य या क्षत्रिय की वृत्ति अपनाये तो इस क्रम से आगे चलकर क्रम से पाँचवीं या छठी पीढी में उसकी सन्तानें क्रम से वैश्य या क्षत्रिय हो जायेगी। इसी प्रकार यदि कोई क्षत्रिय वैश्य या शूद्र की वृत्ति अपनाये तो पांचवीं या छठी पीढ़ी में उसकी सन्ताने क्रम से वैश्य या शूद्र हो जायेंगी। इसी प्रकार एक वैश्य की शूद्र वृत्ति उसकी पांचवीं पीढ़ी में उसके कुल को शूद्र बना देगी।
बौधायनधर्ममूत्र (१८११३-१४) में जात्युत्कर्ष का एक दूसरा ही उदाहरण मिलता है यदि कोई निषाद (एक ब्राह्मण का उसकी शूद्र नारी से उत्पन्न पुत्र) किसी निषादी से विवाह करता है और यह क्रम चलता रहता है तो पाँचवीं पीढ़ी शूद्र की गहित स्थिति से छुटकारा पा लेती है और सन्तानों का उपनयन संस्कार हो सकता है अर्थात् उनके लिए वैदिक यज्ञ किये जा सकते हैं।
उपर्युक्त विधानों से जन्म पर आधारित जाति-व्यवस्था की दृढताएँ पर्याप्त मात्रा में शिथिल हो जाती हैं। एक सन्देह उत्पन्न हो सकता है; क्या जात्युत्कर्ष एवं जात्यपकर्ष की विधियाँ (विशेषतः वृत्ति या व्यवसाय-सम्बन्धी) कभी वास्तविक जीवन में कार्यान्वित हुई ? पाँच या सात पीढ़ियों तक का वंश-क्रम स्मरण रखना हँसी-खेल नहीं है। इसके अतिरिक्त इस विषय में स्वयं स्मृतिकारों में मतैक्य नहीं है। अतः कहा जा सकता है कि ऐसे विधान केवल आदर्श रूप में ही पड़े रह गये होंगे। मनु एवं याज्ञवल्क्य के कथनानुसार हमें साहित्य, धर्मशास्त्रों, अभिलेखों या शिलालेखों में कोई भी उदाहरण नहीं प्राप्त होता। शिलालेखों में कहीं-कहीं अन्तर्जातीय विवाह की चर्चाएँ पायी गयी हैं। कादम्ब कुल आरम्भ में ब्राह्मणकुल था, किन्तु कालान्तर में क्षत्रिय हो गया। वृत्ति-परिवर्तन के कारण ही ऐसा सम्भव हो सका, और आरम्भ के मयर शर्मा का कूल कालान्तर में वर्मा (क्षत्रियत्व की बोधक) उपाधि धारण करने लगा। महाभारत में हम कुछ राजाओं को ब्राह्मण होते देखते हैं, यथा राजा वीतहव्य ब्राह्मण हो गये (अनुशासनपर्व ३०), आष्टिषेण, सिन्धुद्वीप, देवापि एवं विश्वामित्र सरस्वती के पवित्र तट पर ब्राह्मण हुए (शल्यपर्व ३९।३६-३७)। पुराणों में विश्वामित्र, मान्धाता, सांकृति, कपि, वधयश्व, पुरुकृत्स, आष्टिषेण, अजमीढ आदि ब्राह्मण पद प्राप्त करते देखे गये हैं।
धर्मशास्त्र-साहित्य एवं उत्कीर्ण लेखों से विदित होता है कि व्यवसाय-सम्बन्धी जातियाँ व्यवस्थित एवं धनी थीं। इस सम्बन्ध में श्रेणी, पूग, गण, वात एवं संघ शब्दों की जानकारी आवश्यक है। कात्यायन के मतानुसार ये सभी समूह या वर्ग कहे जाते थे।५ वैदिक साहित्य में भी ये शब्द आये हैं, किन्तु वहाँ इनका सामान्य अर्थ 'दल' अथ
२४. अजीवन्तः स्वधर्मणानन्तरा यवीयसी वृत्तिमातिष्ठेरन् । न तु कदाचिज्ज्यायसीम् । वसिष्ठ २०२२-२३ ।
२५. गणाः पाषण्डपूगाश्च वाताश्च श्रेणयस्तथा। समूहस्थाश्च ये चान्ये वर्गाख्यास्ते बृहस्पतिः॥ स्मृतिचन्त्रिका (व्यवहार) में उदत कात्यायन-वचन।
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