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धर्मशास्त्र का इतिहास वा वर्ग ही है।'' पाणिनि ने पूग, गण, संघ (५।२।५२), वात (५।२।२१) की व्युत्पत्ति आदि की है। पाणिनि के काल तक इन शब्दों के विशिष्ट अर्थ व्यक्त हो गये थे। महाभाष्य (पाणिनि पर, ५।२।२१) ने बात को उन लोगों का दल माना है, जो विविध जातियों के थे और उनके कोई विशिष्ट स्थिर व्यवसाय नही थे, केवल अपने शरीर के बल (पारिश्रमिक) से ही अपनी जीविका चलाते थे। काशिका ने पूग को विविध जातियों के उन लोगों का दल माना है, जो कोई स्थिर व्यवसाय नहीं करते थे, वे केवल धनलोलुप एवं कामी थे। कौटिल्य (७१) ने एक स्थान पर सैनिकों एवं श्रमिकों में अन्तर बताया है, और दूसरे स्थान पर यह कहा है कि कम्बोज एवं सुराष्ट्र के क्षत्रियों की श्रेणियाँ आयुधजीवी एवं वार्ता (कृषि) जीवी हैं। वसिष्ठधर्मसूत्र (१६।१५) ने श्रेणी एवं विष्णुधर्मसूत्र (५।१६७) ने गण का प्रयोग संगठित समाज के अर्थ में किया है। मनु (८१२१९) ने संघ का प्रयोग इसी अर्थ में किया है। विविध भाष्यकारों ने विविध ढंग से इन शब्दों की व्याख्या उपस्थित की है। कात्यायन के अनुसार नैगम एक ही नगर के नागरिकों का एक समुदाय है, वात विविध अस्त्रधारी सैनिकों का एक झुंड है, पूग व्यापारियों का एक समुदाय है, गण ब्राह्मणों का एक दल है, संघ बौद्धों एवं जैनों का एक समाज है, तथा गुल्म चाण्डालों एवं श्वपचों का एक समूह है। याज्ञवल्क्य (११३६१) ने ऐसे कुलों, जातियों, श्रेणियों एवं गणों को दण्डित करने को कहा है, जो अपने आचार-व्यवहार से च्युत होते हैं। मिताक्षरा ने श्रेणी को पान के पत्तों के व्यापारियों का समुदाय कहा है और गण को हेलाबुक (घोड़े का व्यापार करनेवाला) कहा है। याज्ञवल्क्यं (२।१९२) एव नारद (समयस्यानपाकर्म, २) ने श्रेणी, नैगम, पूग, वात, गण के नाम लिये हैं और उनके परम्परा से चले आये हुए व्यवसायों की ओर संकेत किया है। याज्ञवल्क्य (२।३०) ने कहा है कि पूगों एवं श्रेणियों को झगड़ों के अन्वेक्षण करने का पूर्ण अधिकार है और इस विषय में पूग को श्रेणी से उच्च स्थान प्राप्त है। मिताक्षरा ने इस कथन की व्याख्या करते हुए लिखा है कि पूग एक स्थान की विभिन्न जातियों एवं विभिन्न व्यवसाय वाले लोगों का एक समुदाय है और श्रेणी विविध जातियों के लोगों का समुदाय है, जैसे हेलाबुकों, ताम्बूलिकों कुविन्दों (जुलाहों) एवं चर्मकारों की श्रेणियाँ। चाहमान विग्रहराज के प्रस्तरलेख में 'हेड़ाविकों को प्रत्येक घोड़े के एक द्रम्म देने का वृत्तान्त मिलता है (एपिफिया इण्डिका, जिल्द २, पृ० १२४)। नासिक अभिलेख सं० १५ (एपि० इण्डिका, जिल्द ८, १०८८) में लिखा है कि आभीर राजा ईश्वरसेन के शासनकाल में १००० कार्षापण कुम्हारों के समुदाय (श्रेणी) में, ५०० कार्षापण तेलियों की श्रेणी में, २००० कार्षापण पानी देनेवालों की श्रेणी (उदक-यन्त्र-श्रेणी) में स्थिर सम्पत्ति के रूप में जमा किये गये, जिससे कि उनके ब्याज से रोगी भिक्षुओं की दवा की जा सके। नासिक के ९वें एवं १२वें शिलालेखों में जुलाहों की श्रेणी का भी उल्लेख है। हुविष्क के शासन-काल के मथुरा के ब्राह्मशिलालेख में आटा बनानेवालों (समितकर) की श्रेणी की चर्चा है। जुन्नार बौद्ध गुफा के शिलालेख में बांस का काम करनेवालों तथा कांस्यकारों (ताम्र एवं कांसा बनानेवालों) की श्रेणियों में धन जमा करने की चर्चा हई है। स्कन्दगुप्त के इन्दौर ताम्रपत्र में तेलियों की एक श्रेणी का उल्लेख है। इन सब बातों से स्पष्ट है कि ईसा के आसपास की शताब्दियों में कुछ जातियों, यथा लकड़िहारों, तेलियों, तमोलियों, जुलाहों आदि के समुदाय इस प्रकार संगठित एवं व्यवस्थित थे कि लोग उनमें निःसंकोच सहस्रों रुपये इस विचार से जमा करते थे कि उनसे ब्याज रूप में दान के लिए धन मिलता रहेगा।
२६. हंसा इव श्रेणिशो यतन्ते यदाक्षिषुदिध्यमज्ममश्वा । ऋ०१।१६३।१०; पूगो वै रुद्रः। तदेनं स्वेन पूगेन समर्धयति । कौषी० ब्राह्मण १६७; तस्मादु ह वै ब्रह्मचारिसंघ चरन्तं न प्रत्याचक्षीतापि हैतेष्वेवंविष एवं व्रतः स्यादिति हि ब्राह्मणम्। आप० धर्म० सू० १॥१॥३।२६।
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